Bhaktamar Stotra Sanskrit-1 Lyrics । भक्तामर स्तोत्र श्लोक/महिमा/पाठ-1

Bhaktamar Stotra-1 Shloka/Mahima/Paath/Kavya

Sanskrit (सर्वविघ्न विनाशक काव्य)

भक्तामर- प्रणत- मौलि- मणि- प्रभाणा

मुद्‌द्योतकं दलित- पाप- तमो- वितानम् 

सम्यक्प्रणम्य जिन- पाद- युगं युगादा

वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्  ।।1।।

Hindi

भक्त अमर नत मुकुट सुमणियों की सु-प्रभा का जो भासक
पाप रूप अति सघन तिमिर का ज्ञान-दिवाकर-सा नाशक

भव-जल पतित जनों को जिसने, दिया आदि में अवलम्बन
उनके चरण कमल को करते, सम्यक् बारम्बार नमन
   ।।1।।

English

Bhaktāmar-Pranata-mauli mani-prabhānā-

Muddyotakam-Dalita-pāpa- tamo-vitānam 

Samyak-pranamya Jinapāda-yugam-Yugādā

Vālambanam Bhavajalé Patatām Janānām  ।।1।।

Bhaktamar Stotra/Mahima/Paath Sanskrit No-1 with Hindi Meaning

BHAKTAMAR STOTRA 1 HINDI MEANING
Bhaktamar Stotra/Mahima-1 (Hindi Meaning)

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BHAKTAMAR STOTRA 1
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Bhaktamar Strotra 1st Shloka । भक्तामर स्तोत्र श्लोक 1 (With Hindi meaning, lyrics, Paath, text, image presentation)

Bhaktamar Strotra 1st Shloka । भक्तामर स्तोत्र श्लोक 1

Bhaktamar Strotra 1st Shloka in Sanskrit:

HINDI MEANING:
भक्ति कर रहे देवों के झुके हुए मुकुटों की मणियों की कांति को प्रकाशित करने वाले, पापरूपी अन्धकार के विस्तार को नष्ट करने वाले, संसार रूपी जल में गिरते हुए प्राणियों को सहारा देने वाले, इस युग के प्रारम्भ में धर्म का प्रवर्तन करने वाले, ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के दोनों चरणकमलों को अच्छी प्रकार विधिवत् प्रणाम करके (में स्तुति करता हूँ) I

कर्मभूमि के प्रारम्भ में राज्यावस्था में तीर्थंकर आदिनाथ ने प्रजापाल बनकर के आजीविका के लिये षट्कर्मों की व्यवस्था की/उनकी शिक्षा दी I
असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्प यह छह तरह के कर्म षट्कर्म कहलाते हैं I

तीर्थंकर सौ (100) इन्द्रों द्वारा वन्दनीय होते हैं।
भवनवासियों → 40
व्यंतरों → 32,
कल्पवासियों → 24
चन्द्रमा → 1
सूर्य → 1
चक्रवर्ती → 1
सिंह → 1

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आदिनाथ भगवान के चरण-कमल कैसे है ?

स्तोत्र कर्ता आचार्य मानतुंग जी जिन आदिनाथ भगवान के युगल चरणाम्बुजों में नमस्कार करते है वे चरण-कमल कैसे है ? इसकी व्याख्या उन्होंने निम्नलिखित तीन विशेषणों द्वारा स्पष्ट की है।

प्रथम तो उन्होंने नत मस्तक भक्त देवों को श्री चरणों में नमस्कार करते हुए दर्शाया है जिसके फलस्वरूप मस्तक के मुकुट मणियों की कांति इतनी अधिक जगमगाने लगती है कि एक प्रकार का अलौकिक आलोक चतुर्दिक (चारों दिशाओं में) फैल जाता है अथवा श्री जिनेश्वर देव के पद-नख इतने अधिक तेजवन्त है कि उनसे निःसृत (बाहर निकला हुआ) प्रखर (तेज) रश्मियों के कारण नतमस्तक मुकुट की मणियो अत्यधिक कान्ति से झिलमिलाने लगती है । नख-प्रकाश के इस परावर्तन (Reflection) से एक अद्भुत तेजोमय वातावरण का निर्माण होता है। श्री जिनेश्वर देव के सानिध्य में एक कोटि देवता निरन्तर उनकी सेवा भक्ति करते रहते है। यहा भक्त देवो से तात्पर्य इसी कोटि के देवों से है अथवा अन्य सम्यक्त्वी देव भी भक्ति वश प्रभु के पास आकर अत्यन्त विनयपूर्वक नमस्कार करते है ; उनको भी भक्त देव समझना चाहिये।

द्वितीय- श्री जिन चरण युगल पाप-तिमिर (अंधकार,अँधेरा) के पुंज (विस्तार,समूह) को नाश करने वाले है। इसका अर्थ यह है कि नमस्कार करते ही हृदय में स्थित पापान्धकार का पलायन अति शीघ्र हो जाता है। मन को पवित्र करने के लिए जिन-चरण की सेवा समान अन्य कोई सुन्दर सुलभ साधन नहीं है।

तृतीय- ये चरण युगल संसार रूपी सागर मे डूबे हुए प्राणियों के लिए आलम्बन स्वरुप है अर्थात् जो व्यक्ति भक्ति पूर्वक इनकी चरण शरण में आते है तो उनको किसी प्रकार के भव-भ्रमण का भय नहीं रहता। अन्य शब्दों में इस प्रकार कह सकते है कि चरण युगल भव-सागर पार करने के लिए सुदृढ सुन्दर नौका तुल्य हैं। उनका आश्रय लेने से भक्त जन संसार-गमुद्र को सरलता में पार कर जाते है और अक्षय अनन्त सुखों के अधिकारी होते है।

यहां “युगादों” शब्द के द्वारा युग की आदि में अवितरित (अवतार के रूप में उत्पन्न) आदिनाथ भगवान की ओर अथवा युग शब्द के श्लेष का विश्लेषण (Analysis) करने से वहां आदिनाय के युगल श्री चरणो ने ओर भी संकेत मिलता है।

श्लेष – एक शब्दालंकार जिसमें एक शब्द के द्वारा अनेक अर्थ व्यक्त किए जाते हैं।

इन विशेषणों से स्तोत्र कर्ता आचार्यश्री यह ही कहना चाहते है कि जिनको अचिन्त्य शक्ति (Unlimited Power) प्राप्त है, ऐसे देव भी जब श्री जिनेश्वर देव को परम भक्ति से नित्य नमस्कार करते है तो फिर हमारी क्या गिनती ? हम जैसी भव भीरु (जिसे भय हुआ हो) आत्माओं को तो उनकी प्रणामादिक (Salutations) के द्वारा निरन्तर ही भक्ति करनी चाहिए। मैं जो यहाँ श्री आदिनाथ भगवान के युगल चरणों में सम्यक नमन कर रहा हूँ वह भक्त देव देवेन्द्रों का अनुकरण (नकल) मात्र है। उत्तम अनुकरण करना गतानुगतिकता (आँख मूदकर दूसरों का अनुसरण करनेवाला) नहीं प्रत्युत् (बल्कि) विशिष्ट (specific) पुरुषों द्वारा प्रवर्तित (promoted) एक प्रशंसनीय (Praiseworthy) आचार (आचरण-conduct) है।

गुणों की दृष्टि से सभी तीर्थंकर भगवन्त समान होते हैं अत: यह स्तुति अन्य तीर्थंकरों पर भी चरितार्थ होती है। कोई तीर्थंकर अधिक प्रभावशाली या शक्तिशाली हो और कोई कम, इस मान्यता का जैन धर्म में कोई स्थान नहीं है । अर्थात् किन्हीं भी तीर्थंकर को निमित्तभूत मानकर स्तुति की जा सकती है और उस स्तुति में सभी तीर्थयारों के प्रति की गई स्तुति गर्भित (implied) हो जाती है।

तीर्थकर भगवन्त चौंतीस विशिष्ट अतिशयों से मण्डित होते हैं। जिनका वर्गीकरण चार आधारभूत अतिशयों में किया जा सकता है-

(१) ज्ञानातिशय (२) वचनातिशय, (३) पूजातिशय, (४) अपायापगमातिशय

इनमें सर्वज्ञता ज्ञानातिशय है। दिव्यध्वनि वचनातिशय है । शतेन्द्रों द्वारा पूजा पूजातिशय है। ईतिमीति रहित सुभिक्ष के सद्भावपूर्ण वातावरण का होना ही अपायापगमातिशय कहलाता है । ये चारों अतिशय प्रथम छन्द में सूचित किये गये हैं।

भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा मुद्द्योतकं यह पद पूजातिशय का सूचक है । दलितपापतमोवितानम् अपायापगमतिशय की ओर संकेत करता है, क्योंकि अपाय (नीति के विरुद्ध आचरण) ही पाप का परिणाम है। वालम्बनं भवजले पततां जनानाम्इस पद से ज्ञानातिशय और वचनातिशय का निर्देशन होता है क्योंकि ज्ञानी के सद्वाक्य ही भक्तजनों के लिए आलम्बन रूप बन सकते हैं।

यहाँ कोई यह प्रश्न कर सकता है कि ऊपर तो जिन चरणों को संसारसमुद्र में डूबे हुए मनुष्यों के लिए आलम्बन स्वरूप कहा है और फिर यहाँ ज्ञान और वचन को आलम्बन स्वरूप बताया जा रहा है ऐसा क्यों ? …तो इसके समाधान स्वरूप जिन चरण में यथाख्यात चरित्र के धारी जिनेन्द्र भगवान को ही लिया जा सकता है, क्योंकि वे पूर्ण सर्वज्ञ और वीतराग होते हैं उनकी सातिशय हितोपदेशी वाणी के द्वारा ही धर्म की देशना होती है इसलिए इसमें कोई विरोध नहीं आता है।

आचार्य श्री मानतुङ्ग जी ने इस भक्तामर स्तोत की संरचना के लिए ‘वसंततिलका’ वृत्त को अपनाया है जो कि संस्कृत भाषा का एक अति ललित छन्द है। जिसका कि दूसरा नाम ‘मधु माधवी’ छन्द भी है। इस कर्णप्रिय छन्द का लक्षण काव्य शास्त्र में “तभजा जगौगा” माना गया है । अर्थात् इसमें क्रमश: तगण, भगण, जगण और अन्त में गुरु होता है । इस प्रकार चौदह अक्षरों से इसका निर्माण होता है।

कड़े शब्दों के शब्दार्थ (Meaning of difficult Sanskrit words)

भक्तामरप्रणतमौलिमणिप्रभाणा” – भक्त देवों के विशेष रूप से झुके हुए मुकुटों की मणियों की कान्ति के।
विशेषार्थजो इष्टदेव की विशेष प्रकार से भक्ति करता है, वह भक्त कहलाता है। यहाँ इष्टदेव से तात्पर्य श्री वीतराग जिनेन्द्र देव से है। ऐसे इष्टदेव की भक्ति करने वाले जो अमर अर्थात् देव हैं, वे हुए भक्त देवनत का अर्थ है झुके हुए, प्रणत विशेष रूप से झुके हुए। भक्ति में भाव विभोर होते समय इसी प्रकार नत मस्तक होने के प्रसंग आते हैं। मौलि अर्यात मुकुट, मणि का अर्थ है-चन्द्रकांत तुल्य मणि । देवों के मुकुटों में इस प्रकार की मणियां जड़ी होती है। जिनकी प्रभाणाम्-कान्ति की उद्‌द्योतकं-उद्योत (प्रकाश) को करने वाला।

दलितपापतमोवितानम्– पापरूपी तमस् अर्थात् अन्धकार के विस्तार के समूह को नाश करने वाला।
विशेषार्थपाप रूपी तमस-अन्धकार, वही हुआ पापतमः, उसका वितान अर्थात् समूह, वही हुआ पापतमोबितान । उसको दलित किया है अर्थात् नाश किया है जिसने ऐसा वह दलित पापतमोवितान अर्थात् पापरूपी अन्धकार के समूह को नाश करने वाला।

युगादौ” – युग के आदि में, चतुर्थ आरे के प्रारम्भ में।
विशेषार्थ – यहाँ युग शब्द से वर्तमान अवसर्पिणी काल का तीसरा सुखमा-दुखमा नाम का आरे के अन्तिम भाग और चौथे आरे के आरम्भ भाग को समझना चाहिये-कि जिसमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव (आदिनाथ) भगवान हुए थे

इतिहासकारों ने संस्कृत युग को आदिकाल माना है, क्योंकि मानव संस्कृति के अनुरूप सर्व विद्या कलाओं असि (शस्त्र विद्या), मसि (लेखन), कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प का उद्भव (evolution) इसी काल में हुआ है।

भवजले – संसार रूपी सागर के अथाह जल में।

विशेषार्थभव रूपी जल अर्थात् भवजल, यहाँ भव शब्द से जन्मजरामरण रूप संसार समझना चाहिये, उसका अथाह जल वही भव जल है । (जरा – बुढ़ापा, वृद्धावस्था)

पततां – पड़े हुए, गिरते हुए।

जनानाम् – मनुष्यों का ।

“आलम्बनं” – आलंवन रूप, आधारभूत ।

जिनपादयुगं – जिनेश्वर देव के चरण युगल में ।
जिन अर्थात् जिनेश्वर (तीर्थंकर) देव के पाव-पग-चरण का युग-युग्म (युगल)।

“सम्यक्”- भली भांति भक्ति पूर्वक, मन-वचन-काय के प्रणिधान पूर्वक ।

“प्रणम्य– प्रणाम करके।

Hindi Meaning (भावार्थ) of Bhaktamar Stotra/Mahima No-1​

भक्ति कर रहे देवों के झुके हुए मुकुटों की मणियों की कांति को प्रकाशित करने वाले, पापरूपी अन्धकार के विस्तार को नष्ट करने वाले, संसार रूपी जल में गिरते हुए प्राणियों को सहारा देने वाले, इस युग के प्रारम्भ में धर्म का प्रवर्तन करने वाले, ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के दोनों चरणकमलों को अच्छी प्रकार विधिवत् प्रणाम करके (में स्तुति करता हूँ)

English Meaning of Bhaktamar Stotra/Mahima No-1​

  • Having duly bowed down to the feet of Jina, which, at the beginning of the yuga, was the prop of men drowned in the ocean of worldliness and which illuminate the lustre of the gems of the prostrated heads of the devoted gods, and which dispel the vast gloom of sins.  
  • Duly and honourable bowing down at the lotus-like feet of Shree Jindeva (Lord Adinatha) which illuminates the luster of jewels of the crowns of devout (very religious) gods, bent down (before Adinatha in obeisance), destroys the spreading darkness of sins and supports, in the beginning of the age (Karm-yuga) persons falling down into this ocean of world.

Obeisance – respect for and willingness to obey somebody/something सम्मान; आदर; आज्ञा का पालन

"Bhaktamar" Meaning

भक्तामर स्तोत्र एक अपूर्व भत्तिस्तोत्र है। भक्ति एक त्रिमुखी प्रक्रिया है,जिसके तीन केद्रविन्दु है –

  1. भक्त 2. परमात्मा और 3. भक्ति।

भक्त आत्मा और परमात्मा के बीच सम्बन्ध जोड़नेवाला प्रशस्त भाव भक्ति है। परमात्मा जैसे भाव “स्व” में प्रकट करना परमार्थ भक्ति है।

“भक्तामर” यह कितना प्रिय शब्द है। हमारे साथ कई बार सांसारिक रिश्तो, संबंधों के शब्द-नाम जुड़ते आये हैं, पर कभी हमारे साथ परमात्म शब्द सयुक्त हुआ देखा क्या?

“भक्तामर” यह एक ऐसा शब्द है जिसमे हम परमात्मा के साथ हैं या ऐसा कहें कि परमात्मा हमारे साथ है।

“भक्त” याने भक्त-आत्मा। “अमर” शब्द का अर्थ देव होता है और दूसरा अर्थ होता है मोक्ष, तीसरा अर्थ होता है जो अमर स्थान को प्राप्त कर चुके, वे परमात्मा-सिद्ध

“अमर” याने वह स्थान जहाँ जाने पर मृत्यु नही होती अथवा “अमर” याने वह जो अब कभी भी मरनेवाला नही है, क्योकि मरता वह है जिसका जन्म होता है। जो देह-पर्याय से ही सर्वथा रहित है उनका तो जन्म क्‍या और मृत्यु क्या?

ऐसे परमात्म भाव के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर जो कृतकृत्य हो गये, उनके साथ जुडकर वैसा हो जाना कितना दुरूह है। “भक्तामर स्तोत्र” ऐसी परम सहजावस्था तक पहुँचाने का सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर सफल रहा है।

भक्त अर्थात्‌ जीव-आत्मा नवतत्त्वों मे प्रथम तत्त्व। “अमर” याने मोक्ष नवतत्त्वों मे अन्तिम तत्त्व। प्रथम तत्त्व की समापत्ति अन्तिम तत्त्व मे है। आत्मा सहज मुक्तावस्था मे परमात्मा हो जाता हे या परमात्मा कहलाता है। अतः भक्तामर याने आत्मा-परमात्मा का मिलन, आत्मा-परमात्मा का दर्शन, आत्मा-परमात्मा का चिन्तन और अन्त मे परमात्मदशा प्राप्त करने की सर्वश्रेष्ठ सफल साधना है।

Bhaktamar Mahima 1 (मानतुंग आचार्य की जीवनी)

मानतुंग आचार्य सातवी शताब्दी के जैन मुनी थे। जो भक्तामर स्तोत्र के निर्माता है। जिनके समय भोपाल नगरी पर राजा भोज राज्य करते थे। एक बार राजा भोज को मानतुंग आचार्य अपने राज्य मे आने कि खबर मिली तो उन्होने आचार्यजी को भोजन के लिये महल मे आने को आमंत्रण दिया। वो अपना राजपाठ आचार्यजी को दिखाना चाहते थे। ये बात आचार्य जी के ध्यान मे आ गई। उन्होने आने से मना कर दिया। इस बात से राजा भोज क्रोधीत हो गए उन्होने आदेश दिया कि आचार्य जी को बंदी बना लिया जाए। सैनिको ने आचार्य जी को बंदी बना लिया। फिर राजा भोज उनसे मिलने गए। उन्होने आचार्य जी से कहा कि आपको किस बात का अहंकार है। मैं आपका अहंकार तोडता हूं ऐसा कहकर उसने सैनिको को आदेश दिया कि, आचार्य जी को ४८ अंधेरे कमरो मे बंद किया जाये। आचार्य जी मुस्कुराये और राजा को कुछ नही कहा। उनको एक के अंदर एक ४८ कमरो मे बंद कीया गया। और हर कमरे को ताला लागाया गया। और सबसे अंदर के कमरे मे आचार्य जी को लोहे की जंजीर से बांधा गया।

आचार्य जी ने वहा पर भक्तामर स्तोत्र लिखना शुरु किया। तो एक के बाद एक ताले खुलने लगे। आचार्य जी ने भक्तामर स्तोत्र मे पुरी ४८ कडीयां लिखी जिसमे उन्होने भगवान आदिनाथ कि स्तुती लिखी। इससे ना सिर्फ आचार्य जी को बंद किये हुए कमरो के ताले खुले बल्कि राजा भोज का सिंघासन भी हडकंप मचाने लगा। ये देख राजा डर गया उसकी समझ मे आ गया कि ये सब उसकी गलति का नतिजा है। उसने तुरंत ही आचार्य जी से माफी मांगी और सम्मान पूर्वक उनको भोजन कराया। कहते है कि जो भी भक्तामर स्तोत्र को भक्ती भावसे पढता है उसके सारे पापों का नाश होता है।

लोहे की जंजीरों द्वारा जकड़ाया गया है समस्त शरीर जिनका ऐसे वे श्री मानतुंगाचार्य अन्धकार पूर्ण पाताल तुल्य काल कोठरी में समासीन अपने इष्टदेव श्री आदिनाथ भगवान का स्तोत्र रचने के लिए उद्यत (प्रस्तुत, तैयार,प्रवृत्त,आमादा) हैं। उस समय भाव मंगल की प्राप्ति के लिए वे मन-वचन-काय के प्रणिधान (पूरी भक्ति और श्रद्धा से की जानेवाली उपासना) पूर्वक उनको नमस्कार करते हैं और फिर विशद (स्वच्छ, निर्मल) अर्थ वाले गंभीर पदों द्वारा उनकी स्तुति करने का संकल्प करते हैं ।

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