Bhaktamar Stotra Sanskrit-9 [Mahima Path Lyrics]। भक्तामर स्तोत्र

Bhaktamar Stotra-9 Shloka/Mahima/Paatha

Sanskrit

आस्तां तव स्तवन- मस्त- समस्त- दोषं

त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति    ।

दूरे सहस्र- किरणः कुरुते प्रभैव

पद्माकरेषु जलजानि विकास- भाञ्जि   । । 9 । ।

English

Bhaktamar Stotra/Mahima/Paath Sanskrit No-9 with Hindi Meaning​

BHAKTAMAR STOTRA 9 HINDI MEANING

Bhaktamar Stotra-9 (Shloka/Mahima/Kavya/Paath) Mp3 Lyrics

कड़े शब्दों के शब्दार्थ (Meaning of difficult Sanskrit words)​

“तव”  –  आपका, तुम्हारा ।

अस्त- समस्त- दोषं  –  निर्दोप–समस्त दोपों से रहित ।

विशेशार्थ (अस्त) – ध्वम्त, रहित (समस्त) सम्पूर्ण,  (दोष) – अवगुण अर्थात् समस्त दोष रहित ।


स्तवनम्  – गुणो का कीतन – स्तवन – स्तुति ।

“दूरे”, “आस्ताम्” -दूर रहें।

“त्वत्संकथा” – आपकी सद्वार्ता – आपकी चरित्रचर्चा ।

“अपि” – भी।

“जगताम्”  –  समस्त संसारी जीवों के !

“दुरितानि” – पापों को. अपराधों को।

“हन्ति” – हनन करती है, नष्ट करती है।

“सहस्र- किरणः” – सूर्य ।
विशेषार्थः – (सहस्र) हजार है (किरण:) – रश्मि, जिसमे ऐसा वह सहस्त्रकिरण: अर्थात सूर्य, दिनकर ।

“तस्य” – उसकी।

“प्रभा एव” – कान्ति ही।

“पद्माकरेषु” – सरोवरों में ।
विशेषार्थ – (पदम) कमल,  उसका (आकर) – समुह जिसमें हो उसे कहा जाता है पद्माकर ।

“जलजानि” – कमलों को।

विशेषार्थ:– जल में पैदा हो, उत्पन्न हो वह जलज अर्थात् कमल ।

“विकास- भाञ्जि”   –  विकसित, प्रफुल्लित ।

“कुरुते” – कर देती है।

Hindi Meaning (भावार्थ) of Bhaktamar Stotra/Mahima No-9

आपके समस्त दोषों से रहित स्तवन की तो महिमा ही अलग है भगवन लेकिन आपकी पवित्र कथा मात्र भी संसारी प्राणियों के पापों को नष्ट कर देती है। जैसे सूर्य दूर होने पर भी (सूर्योदय की बात ही क्या है) सूर्य की प्रभा (चमक) मात्र से ही (पूर्णोदय से पूर्व ही) तालाबों में कमल खिल जाते है I

हे चरित्रनायक ! सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका पवित्र कीर्तन तो बहुत दूर की बात है, मात्र आपकी चरित्र-चर्चा ही जब प्राणियों के पापों को समूल नष्ट कर देती है तब स्तवन की अचिन्त्य शक्ति का तो कहना ही क्या।
सूर्यागमन के पूर्व ही जब उसकी प्रभापुंज मात्र से सरोवरों के कमल खिल खिल उठते हैं तब सूर्योदय होने पर तो उसकी किरणों के स्पर्श से वे खिलेंगे ही खिलेंगे, इसमें सन्देह नहीं; अर्थात् सूर्य सुदूरवर्ती होने पर भी अपने किरणों के माध्यम से सरोवरों के कमलों को विकसित कर देता है ।

 

अभी तक स्तुतिकार उपरोक्त पद्यों में जिनेश्वर देव के स्तवन की अचिन्त्य महिमा का गुणगान गाते रहे हैं । इस छन्द में वे उनके चरित्र कथन की महिमा दिग्दर्शित कराते हुए कहते हैं- कि आपका प्रशस्ति गायन तो बहुत बड़ी बात है क्योंकि उसका महत्व तो स्वयं सिद्ध है परन्तु आपकी केवल चर्चा ही इतनी प्रभावक है कि उससे प्राणियों के पाप ध्वस्त हो जाते हैं। इसी विषय को अधिक स्पष्ट करते हुए वे एक दृष्टान्त रूपक प्रस्तुत करते हैं-कि सूर्य पृथ्वी की धरातल से कोसों दूर अपने स्थान पर अवस्थित है तो भी अपनी प्रभा से सरोवरों के कमलों को खिला देता है अर्थात् आपकी चर्चा तो सूर्य की प्रभा की तरह है और आपका स्तवन साक्षात् रविमंडल (वह लाल मंडलाकार बिंब जो सूर्य के चारों ओर दिखाई देता है) ही है।

इस श्लोक की छायावादी व्याख्या करने से एक दूसरा भी अर्थ ध्वनित होता है कि-हे आदीश्वर देव ! आपको इस कर्मभूमि में आये हुए पूरा कल्पकाल व्यतीत हो गया परन्तु काल की वह दूरी अथवा विरह का अन्तराल आपकी चर्चा से समीपतम लगने लगता है कि जिसको सुनकर श्रोताओं के हृदयकमल आज भी खिल उठते हैं । अर्थात् जब भक्त अपने हृदय-कमल में आपका आह्वान करता है तो उस क्षण विरह काल का नहीं बल्कि सामीप्य का ही भान होता है । फिर जो भक्त आपके गुणों का स्तवन करता है वह आपके समान समस्त दोषों से रहित पवित्र व्यक्तित्व प्राप्त कर ले इसमें सन्देह ही क्या ?
सारांश यह कि जब अंश में ही इतना अधिक प्रताप है तो सकल के महत्व का तो कहना ही क्या !

स्वाभाविक आत्मा में शरीर, शब्दादिक का अत्यंताभाव है । अत: उनके माध्यम से, संयोग से चैतन्यमुर्ति आत्मा का यथार्थ वर्णन नहीं हो सकता। जड़ सब्द वाचक बन सकते हैं, वाच्य नहीं। अत: केवल कथा वार्ता ही हो सकती है। यह कथा वार्ता ही दृढ़ आवरणों को भेद डालती है । फलस्वरूप आपकी प्रभा झलकने लगती है। क्या हमारे लिए यही पर्याप्त नहीं है ? इससे मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषायें तो नष्ट हो जाती हैं, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान कषायें भी नीरस हो जाती हैं। चैतन्य कमल सम्यक्त्व-सूर्य के उदय में प्रफुल्लित हो उठते हैं।