Bhaktamar Stotra Sanskrit-8 [Mahima Path Lyrics]। भक्तामर स्तोत्र

Bhaktamar Stotra-8 Shloka/Mahima/Paatha​

Sanskrit​​

मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद-

मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात्  ।

चेतो हरिष्यति सतां नलिनी- दलेषु

मुक्ताफल- द्युति- मुपैति ननूद- बिन्दुः  ॥8॥

Hindi

मैं मतिहीन-दीन प्रभु तेरी, शुरु करूँ स्तुति अघहान
प्रभु-प्रभाव ही चित्त हरेगा, सन्तों का निश्चय से मान
जैसे कमल पत्र पर जल-कण, मोती कैसे आभावान
दिपते हैं फिर छिपते हैं, असली मोती में हे भगवान ॥8॥

English​

Matveti Nātha tava samstavanam mayéda

Mārabhyaté tanudhiyāpi tava prabhāvāta

Chéto harishyati satām nalinidaléshu,

Muktāphala dyutimupaiti nanūdabinduh ॥8॥

Bhaktamar Stotra/Mahima/Paath Sanskrit No-8 with Hindi Meaning​

BHAKTAMAR STOTRA 8 HINDI MEANING

Bhaktamar Mahima Lyrics

Bhaktamar Mahima-8 (शब्दार्थ) (Hindi Meaning of difficult Sanskrit words)

इति मत्वा –   ऐसा मानकर।
विशेष सूचना – सातवें छन्द में आचार्यश्री ने यह दर्शाया था कि “प्राणियों के अनेक जन्मों में उपाजित किये हुए पाप कर्म श्री जिनेन्द्र देव के सम्यक् स्तवन करने से तत्काल सम्पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।” इस प्रसंग को आठवें छन्द के साथ जोड़ने के लिए यहाँ प्रस्तुत छन्द में इति शब्द का प्रयोग किया गया है।


नाथ!  – हे नाथ! हे स्वामिन् !

तनुधिया अपि” –   मन्द बुद्धि वाला होने पर भी।
विशेषार्थ – (तनु) स्वल्प, मन्द है, (धी) बुद्धि जिसकी ऐसा वह तनुधि । “अपि” फिर भी । तात्पर्य यह कि मन्द बुद्धि वाला होने पर भी।

मया–   मेरे द्वारा।

“इदम्” – यह ।

“तव” -आपका, तुम्हारा।

“संस्तवनम्”  –  स्तोत्र, संस्तवन ।

विशेषार्ष – (सं) – समीचीन । (स्तवन) – गुण कीर्तन, वही हुआ संस्तवनम् अर्थात् सम्यक स्तोत्र ।


“आरभ्यते” – प्रारम्भ किया जा रहा है ।

“तव प्रभावात्” – आपके प्रभाव से ।

“सतां”  –  सत्पुरुषों के, सजन’ पुरुषों के ।

“चेतः हरिष्यति” – चित्त को हरण करेगा।

“ननु” – निश्चय से।

(उदबिन्दुः)  –  जल की बूंद ।

विशेषार्थ (उद) – पानी, उसकी (बिन्दुः) बूंद, टीप वही हुआ उदबिन्दुः


“नलिनीदलेषु”  –  कमलिनी के पत्तों पर।
विशेषार्थ(नलिनी) कमलिनी, उसका (दल) पत्ते, वह हुआ नलिनीदल, उनपर (सप्तमी बहु वचनान्त) ।


“मुक्ताफल- द्युतिम्” – मोती की कान्ति को।

विशेषार्थ(मुक्ताफल) – मोती, उसकी (द्युति) – कान्ति, वही हुआ मुक्ताफल- द्युतिम्, उसको।

“उपैति”  –  प्राप्त करती है।

Hindi Meaning (भावार्थ) of Bhaktamar Stotra/Mahima No-8

हे नाथ ! हे स्वामिन् ! ऐसा मानकर कि ‘प्राणियों के अनेक जन्मों में उपार्जित किये हुए पापकर्म आपके सम्यक् स्तवन से तत्काल संपूर्णतया नष्ट हो जाते हैं’, थोड़ी बुद्धि वाला होते हुए भी मेरे द्वारा आपका यह उत्कृष्ट स्तवन प्रारम्भ किया जा रहा है । निश्चय ही यह स्तवन आपके प्रभाव से सज्जन जीवों के चित्त को हरेगा/आकर्षित करेगा । जिसप्रकार जल की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती की कांति/शोभा को प्राप्त करती है (कमलिनी के प्रभाव से) ।

हे प्रभावक प्रभो !
जिस प्रकार कमलिनी के पत्ते पर पड़ा हुआ ओस-बिन्दु उस पत्ते के स्वभाव एवं प्रभाव से मोती के समान आभा बिखेर कर दर्शकों के चित्त को आल्हादित करता है, उसी प्रकार मुझ मंदबुद्धि के द्वारा किया हुआ यह स्तवन भी आपके प्रताप, प्रभाव एवं प्रसाद से सज्जन पुरुषों के चित्त को प्रफुल्लित करेगा।

श्री मानतुंगाचार्य जी श्री जिनेन्द्र गुण कीर्तन को समस्त पाप कर्मों का उन्मूलक (जड़ से उखाड़ने वाला) सिद्ध करने के बाद पुन: उसकी अतिशय महिमा का दूसरा पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं – कि मन्द बुद्धि वाला होने पर भी मेरे द्वारा यह स्तवन कार्य क्यों प्रारंभ किया जा रहा है जब कि बहुश्रुत विद्वानों द्वारा इनके उपहासास्पद होने की पूरी पूरी संभावना है ? उत्तरस्वरूप वे स्वयं कहते हैं कि इसकी पृष्ठभूमि में एक सुदृढ़ आत्मविश्वास हिलोरें ले रहा है और वह आत्मविश्वास है श्री जिनेन्द्र देव का प्रताप, प्रभाव एवं प्रसाद । क्योंकि वे ही तो इस स्तवन रूपी शरीर की आत्मा हैं । गुण गायन भले ही मंदबुद्धि के द्वारा किया जा रहा हो परन्तु चूंकि उसमें आपके गुणों की ही पुट आद्यंत (आदि से अंत तक) विद्यमान है तो आश्चर्य नहीं कि मेरा यह लघु स्तोत्र भी महान् चमत्कारी बन कर सत्पुरुषों के हृदय को प्रफुल्लित करने में समर्थ होगा।

ओस की बूंद का भी भला कोई मूल्य होता है ? परन्तु वही बूंद जब कमलिनी के पत्र पर पड़ जाती है तब स्वभावत: ही वह मोती का रूप धारण करके दर्शकों के मन को मोहित करती है। आखिर उस पानी की बूंद को मोती की आभा देने में किसका हाथ है ? कमलिनी के पत्ते का ही क्या यह स्वाभाविक प्रभाव नहीं है ? अर्थात् अवश्य है। उसी भांति स्तुति में गर्भित सारा चमत्कार आपके ही परम प्रसाद का परिणाम है। इसमें मेरा कुछ नहीं।

इस छंद में मुनिवर्य ने पुनः अपनी कर्तृत्वहीनता एवं अपने इष्टदेव की अचिन्त्य गुरुता का उल्लेख किया है । यही तो उनकी महानता है।

भव्य जीवों के वचन रूपी जल-कण मिथ्यात्व-मल मैल के हटते ही गुणानुवाद रूपी पत्ते भी उस पानी पर फैले हुए हैं ! हे भगवन् ! मेरी आत्मा पर कर्मों के आवरण हैं ! उसमें यथार्थ स्वरूप होना असम्भव है, तब भी पौद्रालिक शब्दों से मेरे द्वारा जो स्तवन हो रहा है, वह संतों को तो सन्तुष्ट करेगा ही। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ऐसा भी अर्थ ध्वनित होता है कि सम्पूर्ण सिद्धि तो स्वयं रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग पर चलने से ही होती है, परन्तु उसका प्रारम्भ तो सम्यक् दर्शन से ही होता है, अर्थात् यदि मोक्ष न होगा तो सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो होगी ही।

Bhaktamar Ki Mahima-8

आचार्य की दृष्टि में तो अन्तर में विद्यमान परम-प्रभुता की अर्थात् अपने ज्ञायक स्वभाव की ही एकता और महिमा है; फिर भी वे परम विनम्रता सहित, तीर्थंकर भगवान को अपने हृदय में स्थापित करते हैं; आचार्य देव सिद्ध परमात्मा को अपने सन्मुख ही मानते हैं। वे कहते हैं – है चैतन्य के सागर ! हे परम पवित्रात्मा ! कहाँ मेरी मन्दबुद्धि और कहाँ आपका केवलज्ञान ? यद्यपि मेरे पास मति-श्रुतज्ञान की तुच्छबुद्धि है, तथापि मैंने उसे अन्तर्मुख किया है, जो केवलज्ञान का बीज है।

व्यवहार में आपका स्तवन करता हूँ। जैसे- श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है’मैं द्रव्य-भाव की स्तुति करता हूँ’; वैसे ही यहाँ कहा है कि मैं आपका स्तवन शुरू करता हूँ। आपकी भक्ति के प्रभाव से प्रसन्न चित्तवालों को यह मेरा स्तोत्र अवश्य ही रुचिकर होगा, यदि उनको वीतराग स्वभावकी रुचि होगी।अरे, जिसे परमात्मा की भक्ति की अभिलाषा हुई है, उसे वीतरागस्वभाव की रुचि क्यों न होगी? होगी ही।अहो!आचार्य के हृदय में भक्ति का प्रेम उछला है और वे उपमा देते हैं कि जैसे -पानी की बूंद कमल के पत्ते पर मोती की तरह लगती है-यह कमल के पत्ते का प्रताप है, उसीप्रकार मेरी भक्ति पानी की बूंद के समान है, किन्तु आपके प्रति होने से मुक्ताफल जैसी कान्तिवाली होगी। यद्यपि भक्ति करने में राग होता है; तथापि यह मुक्ताफल की तरह सुशोभित होगी।


हे नाथ ! कमलपत्र पर पानी मोती की तरह सुन्दर लगता है, उसीप्रकार मुझ अल्पज्ञ द्वारा की हुई स्तुति आपके प्रताप से सज्जनों-धर्मात्माओं के चित्त में मुक्ताफल की तरह सुशोभित होगी।