“इति मत्वा” – ऐसा मानकर।
विशेष सूचना – सातवें छन्द में आचार्यश्री ने यह दर्शाया था कि “प्राणियों के अनेक जन्मों में उपाजित किये हुए पाप कर्म श्री जिनेन्द्र देव के सम्यक् स्तवन करने से तत्काल सम्पूर्णतया नष्ट हो जाते हैं।” इस प्रसंग को आठवें छन्द के साथ जोड़ने के लिए यहाँ प्रस्तुत छन्द में इति शब्द का प्रयोग किया गया है।
“नाथ!” – हे नाथ! हे स्वामिन् !
“तनुधिया अपि” – मन्द बुद्धि वाला होने पर भी।
विशेषार्थ – (तनु) स्वल्प, मन्द है, (धी) बुद्धि जिसकी ऐसा वह तनुधि । “अपि” फिर भी । तात्पर्य यह कि मन्द बुद्धि वाला होने पर भी।
“मया” – मेरे द्वारा।
“इदम्” – यह ।
“तव” -आपका, तुम्हारा।
“संस्तवनम्” – स्तोत्र, संस्तवन ।
विशेषार्ष – (सं) – समीचीन । (स्तवन) – गुण कीर्तन, वही हुआ संस्तवनम् अर्थात् सम्यक स्तोत्र ।
“आरभ्यते” – प्रारम्भ किया जा रहा है ।
“तव प्रभावात्” – आपके प्रभाव से ।
“सतां” – सत्पुरुषों के, सजन’ पुरुषों के ।
“चेतः हरिष्यति” – चित्त को हरण करेगा।
“ननु” – निश्चय से।
(उदबिन्दुः) – जल की बूंद ।
विशेषार्थ (उद) – पानी, उसकी (बिन्दुः) बूंद, टीप वही हुआ उदबिन्दुः ।
“नलिनीदलेषु” – कमलिनी के पत्तों पर।
विशेषार्थ – (नलिनी) कमलिनी, उसका (दल) पत्ते, वह हुआ नलिनीदल, उनपर (सप्तमी बहु वचनान्त) ।
“मुक्ताफल- द्युतिम्” – मोती की कान्ति को।
विशेषार्थ – (मुक्ताफल) – मोती, उसकी (द्युति) – कान्ति, वही हुआ मुक्ताफल- द्युतिम्, उसको।
“उपैति” – प्राप्त करती है।