Bhaktamar Stotra Sanskrit-6 [Mahima Path Lyrics]। भक्तामर स्तोत्र
Bhaktamar Stotra-6 Shloka/Mahima/Paath/Chalisa
Sanskrit
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरी- कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र- चारु- कलिका- निकरैक- हेतुः । । 6 । ।
Bhaktamar Stotra/Mahima/Paath Sanskrit No-6 with Hindi Meaning
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरी- कुरुते बलान्माम्
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र- चारु- कलिका- निकरैक- हेतुः
हे भगवन ! मैं क्या करूं, मैं अल्पश्रुत हूं यानि अल्प बुद्धि वाला हूं और श्रुतवतां यानि ज्ञानियों के परिहास- धाम यानि उपहास का पात्र हूँ। सामने कोई अल्पबुद्धि वाला जाए और अपनी शेखी बघारें तो क्या होगा? हंसी का ही पात्र बनेगा, मैं तो हंसी का पात्र हूं और अल्पश्रुत वाला हूं, मुझे मेरी औकात का पता है। आप के दरबार में जितने बड़े बड़े ज्ञानी है ना, उनके आगे मेरी कोई औकात नहीं है। मैं उनके हंसी का पात्र हूं फिर भी त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् आपकी भक्ति ही मुझसे बलपूर्वक मुखर करवा रही है, मुझे वाचाल कर रही है। मुझे बोलना नहीं आता, मुझे स्तवन करना नहीं आता, मुझे छंद लिखना नहीं आता, मुझे अभिव्यक्ति देना नहीं आता पर क्या करूं सब के हंसी का पात्र होने के बाद भी बड़े-बड़े ज्ञानियों के उपहास का पात्र होने के बाद भी अल्पश्रुत वाला होने के बाद भी मैं क्या करूं आपके प्रति मेरे हृदय की जो भक्ति है ना वह मुझसे बलात मुखर करा रही है, बोल ! कहा बैठा है बोल, तू तो बोलता जा, जो तेरे मुंह से निकले सो बोल और वो बोल रही है, आपकी भक्ति मुझे उत्प्रेरित कर रही है और मैं बोल रहा हूं इसमें मेरा कोई करतीत्व नहीं है। यह भी लीला आपकी ही है। आपकी भक्ति मुझसे बलात बुलवा रही है, जबरदस्ती बुलवा रही है। आपकी भक्ति मुझे बोलने के लिए बाध्य कर रही है। मैं बाध्य हूं भक्ति से अनुबंधित हूं और वह मुझे उत्प्रेरित करके बार बार बार बार वाचाल कर रही है बोल ! और मैं बोल रहा हूं।
उदाहरण क्या बढ़िया दिया है। यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, मधौ वसंत ऋतु में कोकिलः कोयल जो मधुर मधुर कूक करती है, अपना राव प्रकट करती है विरौति मधुर गुंजार करती, कूक करती है। कोयल वसंत ऋतु में जो मधुर कूक करती है उसके पीछे का कारण क्या है? तो कहते हैं तच्चाम्र- चारु- कलिका- निकरैक- हेतुः वो आम के चारु यानी सुंदर, कलिका यानी मँजारियों का, निकर यानी समूह ही एकमात्र कारण है। जैसे आम के सुंदर-सुंदर मँजरियों को देखकर बसंत ऋतु में कोयलों की कूक सीधे प्रकट होने लगती है। प्रभु ! वैसे ही आपको देखकर मेरे ह्रदय की भक्ति मुझे वाचाल कर रही है, मैं बोलता जा रहा हूं। इसको भी एक रूपक की तरह देखो क्या है! क्या है, वसंत ऋतु है ‘प्रभु’ और कोयल हैं हम ‘भक्त’। उस भक्त के हृदय में जैसे ही आम की मंजरी रूपी भक्ति दिखती है इस भक्त रूपी कोयल के हृदय में उद्गार उत्पन्न होने लगते हैं वे प्रभु का गुणगान करना शुरू कर देते है।
इस छंद से कुछ बातें और हमें समझना है। एक तो इसका नया अर्थ लो। अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम यह जो हम अर्थ करते हैं, भगवान के सामने चाहे भक्त छोटा हो या बड़ा वह किसी की हंसी का पात्र नहीं बनता। अगर परिहास धाम को भगवान का विशेषण बना ले तो इसका एक नया अर्थ निकलता है। हे भगवन ! आप अल्प श्रुत या अधिक श्रुत वाले सब के परिहास यानी खुशी के, प्रसन्नता के धाम हो। आप अल्प श्रुत वाले और बहु श्रुत वाले सब को प्रसन्नता देने वाले हो। आपके अंदर ज्ञानी हो या अज्ञानी सबके लिए स्थान है सबका उद्धार करने वाले हैं और आपकी भक्ति मुझे मुखर कर रही है, मुझे उत्प्रेरित कर रही है। कह रही है बोलो मैं बोल रहा हूं। मैं नहीं बोल रहा हूं, कौन बुलवा रहा है? भक्ति।
देखिए जब तक मनुष्य के हृदय में भक्ति ना हो उसके अंदर से सही उद्गार प्रकट नहीं होंगे। और हृदय में भक्ति होगी तो अपने आप बोल फूटेंगे। तुम्हें कुछ आता हो तो ना आता हो तो अगर किसी के प्रति तुम्हारे हृदय में भक्ति है, प्रेम है, श्रद्धा है तो उसकी अभिव्यक्ति तुम्हारी वाणी द्वारा होगी और कदाचित वाणी मुक हो जाए तो आंखों से उसकी अभिव्यक्ति होगी प्रकट हो जाता है। अंदर का वो प्रमोद भाव अंदर का वो हर्ष अपने आप प्रकट होता है क्योंकि भक्ति है। आप लोग भगवान के सामने भक्ति करते हो। दूसरों के लिखी लिखाई पंक्तियों को दोहरा देते हो रटी रटाई भक्ति है। वह तुम्हारे अपने हृदय के उद्गार नहीं है। वह तो किसी ने लिख दिया ठीक है हम उसको दोहरा रहे है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर लिखा वो उनकी भक्ति थी। हम तो उसको केवल दोहरा रहे है। क्या करें? हमारे पास उतनी क्षमता नहीं हालाकि उसमें भी हम शब्द दूसरे के हो भाव अपने जोड़ दे तो उसका बहुत प्रभाव पड़ता है। लेकिन केवल पढ़ने की तरह पढ़ेंगे तो उसका कोई प्रभाव नहीं है। मैं आपसे कह रहा था जब भक्ती ह्रदय में प्रस्फुटित होती है तो व्यक्ति मूक नहीं होता मुखर हो उठता है, वह वाचाल हो उठता है। उसके अंदर से स्वर प्रकट होने लगते हैं। यही बात मानतुंग आचार्य कह रहे है मैं कुछ कर नहीं रहा हूं। आपकी भक्ति ही मुझसे जबरदस्ती बुलवा रही है। बोलो ! जो निकले सो बोलो ! जो निकले सो बोलो, बोलते जाओ, बोलते जाओ, बोलते जाओ और आचार्य मानतुंग उसी से उत्प्रेरित होकर के बोलते गए बोलते गए। उनके मुख से निकलने वाले शब्द छंद बनते गए और छंद स्तोत्र बन गया और यह स्तोत्र जन जन का कंठहार बन गया। अपने आप को आगे बढ़ाएं।
एक कवि ने बड़ी अच्छी बात लिखी, मैं तुम तक कैसे आ पाता मुझको पांव मिले ही कब थे देखो भक्ति क्या होती है, मैं तुम तक कैसे आ पाता मुझको पाव मिले ही कब थे जो ले आए चरण यहां तक वह तो पैर तुम्हारे ही थे। मैं तुम तक कैसे आ पाता। मुझको पांव मिले ही कब थे। मैं सामवेद कैसे गा पाता मैं तो था गूंगा बेसुरा, जो लिख पाए छंद यहां पर वे सब शब्द तुम्हारे ही थे। मैं तुम तक कैसे आ पाता, मुझको पांव मिले ही कब थे। यह भक्ति है। हृदय में ऐसी भक्ति का प्रवाह हो जाए तो कायाकल्प हो जाए। अपने मन से पूछो भगवान के प्रति तुम्हारे मन में ऐसी भक्ति कभी प्रकट हुई, गुरु के प्रति तुम्हारे ह्रदय में ऐसी भक्ति प्रकट हुई जो तुम्हें अंदर से उत्तेजित कर दे, हिला डाले। मुश्किल यह है कि दुनियादारी में मनुष्य इतना रचपच जाता है कि भगवान को ही भुला देता है। भगवान को भी याद कब करता है जब सब जगह से हार जाता है, है न? यही आपकी भक्ति है।
एक बार लोक गीत गा रहे थे।
जब कोई नहीं आता, मेरे भगवन आते हैं। मेरे दुख के दिनों में वे बड़े काम आते हैं।
हमने कहा अच्छा है। भगवान को तुमने स्टेपनी बना दिया। पहले सब को आजमा लो बाद में भगवान को आजमाओ तो भगवान भी कहते है मैं स्टेपनी बनना पसंद नहीं करूंगा, वे भी नहीं आएंगे। जब कोई नहीं आता भगवान आते है यह कहने की बात क्यों? जब मैंने भगवान के चरणों में अपना मस्तक झुका दिया तो हमारे उद्गार तो ऐसे होने चाहिए। अब तो तेरे ही भरोसे आदिनाथ भंवर में नैया डाल दई। अब जो है सो तेरा है।
एक बार एक युवक ने अपने मित्र से कहा कि सुना है अमुक लड़की ने पोस्टमैन से शादी कर ली। बोले हां सही सुना है। सच्च? बोला हाँ, पहले मुझे भी भरोसा नहीं होता था। लेकिन जब मैं मिला तो मुझे मालूम पड़ा कि घटना सही है। बोले क्या हुआ? बोला उसका प्रेमी विदेश में रहता था, हर हफ्ते लेटर भेजता था। पोस्टमैन उसे लेटर देकर जाता और हर हफ्ते आता। नतीजा यह निकला कि दूर का उसका प्रेमी दूर रह गया और पोस्टमैन पास आ गया। उससे दिल लग गया। दोनों ने शादी कर ली। अब दोनों साथ रह रहे। क्या हुआ? प्रेमी दूर रह गया। पोस्टमैन सामने पड़ गया। दोनों का दिल लग गया। उसने उससे विवाह कर लिया। मुझे पता नहीं किस पोस्टमैन की किस से शादी हुई? पर थोड़ा अपने इर्द गिर्द देखो ऐसा ही होगा। एक तरफ तुम्हारा परमात्मा और एक तरफ तुम्हारे पदार्थ है, तुम्हारे गोरखधंधे है तुम्हारी दुनियादारी है, धन पैसा है, भोग विलास है, मौज मस्ती के साधन है, दुनियादारी की चीजें हैं। तुम किस को प्रमुखता देते हो। हमारा परमात्मा तो हमसे दूर रह गया और जिसकी कृपा से दुनिया की सारी चीजें हमें प्राप्त हुई व्यक्ति उसी में उलझ जाता है। जड़ से प्रेम करते हो, चेतन को भूल जाते हो तो परमात्मा को भूलकर प्रेमी को भूल कर पोस्टमैन से ब्याह रचाने जैसा ही तो कृत्य हुआ और क्या हुआ? वही हो रहा है यह दृष्टि अपनी बदल जानी चाहिए। तब सच्चे अर्थों में हम कुछ सार्थक घटित कर पाएंगे। बंधुओं अपने अंतरंग में एक बात अच्छे से बिठालना चाहिए कि जितनी प्रबल परमात्मा भक्ति होगी, हमारा उतनी जल्दी बेड़ा पार होगा। हम शरण माने तो भगवान को माने, प्रभु को माने, वीतराग को माने। उनकी शरण हमने एक बार स्वीकार कर ली तो हमारा बेड़ा पार है, हमारा उद्धार है। फिर दुनिया की कोई ताकत हमें रोक नहीं सकती और उनकी शरण हमने खो दी तो फिर जीवन में कुछ भी हासिल नहीं हो सकता। एक बच्चा जब उसे कोई तकलीफ होती है तो कहां भागता है छोटा बच्चा दूध पीता बच्चा अगर कुछ भी तकलीफ होती है तो सीधे मां की गोद में जाता है। मां उसे अपने आंचल में छुपा लेती है और जैसी ही बच्चा मां के आंचल में आता है वह सारी दुनिया से बेखबर हो जाता है। उसे किसी बात का आभास ही नहीं रहता। वह एकदम बेखबर हो जाता है क्योंकि उसको पता है मां मेरे लिए शरण है। मां को छोड़कर भी माता के पास चला जाए तो वहां खतरा है। ऐसी सच्चा भक्त जीवन में जब भी कुछ बात होती है, सीधे प्रभु परमात्मा की शरण में आ जाता है क्योंकि परमात्मा भी हमारे लिए मां के समान हैं। मां तो केवल हमारे एक जीवन को संभालती है, परमात्मा हमारे भव-भव को संभालने वाले हैं। उन के बल पर हमारा उद्धार होता है।
महाभारत का एक प्रसंग आज के संदर्भ में बड़ा उपयोगी प्रतीत हो रहा है। भागवत का प्रसंग है कहते हैं कि जब कंस को मालूम पड़ा कि उसका हंता प्रकट हो गया है और नंद गांव में शिशु के रूप में पल रहा है। राजाओं की नीति होती है कि शत्रु को अगर प्रारंभिक अवस्था में कुचल दिया जाए तो खतरनाक नहीं होगा, यह सोच कर के कंस थोड़ा चिंतित हुआ कि क्या करें? कैसे उसे मारा जाए अब एक बच्चा है, शिशु है पहचान कैसे की जाए, इसी मध्य पूतना उनके दरबार में आ गई। और पूतना ने जब कंस को सुना तो बोली आप चिंता मत करिए। मेरे लिए चुटकियों का खेल है। मैं पल भर में इसे निपटा दूंगी। आप निश्चिंत रहें। नंद गांव में एक भी बच्चा जीवित नहीं बचेगा। कहते हैं पूतना बड़ा, सुंदर और आकर्षक रूप लेकर नंद गांव में गई। सुंदर और आकर्षक रूप धरकर के नंद गांव में गई और उसके उस रूप को देखकर नंद गांव के बच्चे बच्चे मचल उठे। सब कोई उसके आंचल में खेलने और उसके दूध पीने के लिए उतावले हो पड़े लेकिन जिसने जिसने उसका दूध पिया, सब अचेत हो गए जिसने जिसने उसका दूध का पान किया, सब के सब अचेत हो गए। लेकिन जब श्री कृष्ण का नंबर आया, श्री कृष्ण ने पूतना को पहचान लिया और पूतना को पहचानते ही कहते उस बाल्य अवस्था में ही उन्हें पूतना के सिर पर ऐसी जोर की मार मारी की पूतना को अपनी माया समेटकर भागना पड़ा। उन्हें पूतना का ही सफाया कर दिया। घटना अपनी तरह है, लेकिन यह एक रूपक है। यह पूतना क्या है? विषय कषाय का आकर्षण, भोग विलास का आकर्षण जो मनुष्य के लिए बड़ी मोहक प्रतीत होते हैं। उन से आकर्षित होकर के मनुष्य लुब्ध हो जाता, उनके पीछे पागल होता है और जो विषयों के आकर्षण रूप पूतना के चक्कर में फसता है, उसकी जीवन लीला विनस्ट हो जाती है। वह अपना सर्वस्व खो देता है। वह कुछ भी नहीं बना पाता। अपने लिए कुछ बचा नहीं पाता। वह इसी तरह उलझ जाता है लेकिन मां का आंचल है, प्रभु परमात्मा का आंचल, जिसे श्री कृष्ण जैसे विवेक बुद्धि से संपन्न व्यक्ति ही पहचान पाते हैं, जो विषयों से विमुख होकर प्रभु भक्ति की शरण को स्वीकार करता है उसका बेड़ा पार हो जाता है तो अपने विवेक को जागृत रखें। कौन शरण और कौन अशरण इसको पहचानते हुए अपने जीवन को आगे बढ़ाने की कोशिश करें तब सच्चे अर्थों में हम अपना जीवनोंद्धार कर सकेंगे और भवसागर से पार उतरने में समर्थ हो सकेंगे। इसके अतिरिक्त हमारे पास और कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इसलिए इस दूसरे छंद में जो कहा गया, आपकी भक्ति बलात मुझे वाचाल कर रही है। मैं जो कुछ बोल रहा हूं, अपनी इच्छा से नहीं बोल रहा हूं। भक्ति अंदर आकर बैठ गई है, वह बोलते जा रही है बुलवाते जा रही है। मैं बोलता जा रहा हूं और जो बुलवाएगी वो बोलूंगा। जब तक बुलवाएगी तब तक बोलूंगा जैसा बुलवाएगी वैसा बोलूंगा क्योंकि भक्ति मेरे हृदय में बस गई है और वह मुझे निरंतर उत्प्रेरित करते जा रही है। ऐसी उत्प्रेरना जब मन में जगेगी तो हम सबके जीवन का बेड़ा पार होगा। हम अपने जीवन में एक अलग आदर्श उपस्थित कर सकेंगे।
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कड़े शब्दों के शब्दार्थ (Meaning of difficult Sanskrit words)
“अल्पश्रुतं” – अल्पज्ञ, अल्पज्ञानी, अल्पश्रुताभ्यासी।
विशेषार्थ – (अल्प) थोड़ा है, (श्रुत) शास्त्रज्ञान जिसको ऐसा वह अल्पश्रुत। जैन परिभाषा मे शास्त्रों को श्रुत कहा जाता है, क्योंकि वह गुरुओं के मुख से सुनकर ही अवधारण किया जाता है। .
अतएव – इसलिए। अल्पश्रुत का परिणाम जो कि श्रुतवतां परिहास- धाम के रूप में आगे आ रहा है, बतलाने के लिए अतएव शब्द को अध्याहार से यहाँ ग्रहण किया गया है।
“श्रुतवतां” – विद्वानों के।।
विशेषार्थ :-जिन्होंने श्रुत अर्थात् शास्त्रों को भलीभांति देखा, सुना, समझा और भाव भासित किया है वे श्रुतवत् अर्थात् विद्वान् हुए ।
“परिहास – धाम” – उपहास का पात्र, हँसी का स्थान ।
विशेषार्थ – (परिहास) उपहास – हँसी, उसका (धाम) – स्थान ठिकाना । वह हुआ परिहासधाम ।
“माम्” – मुझको।
“त्वद्भक्ति: एव” – आपकी भक्ति ही।
“बलात्” – बलपूर्वक, जबरन ।
“मुखरी- कुरुते” – वाचाल कर रही है, मुखर कर रही है।
“किल” – निश्चयत: – निश्चय से, सचमुच में ।
“यत्” – जो।
“कोकिल:” – कोयल।
“मधौ” – मधु ऋतु में, वसन्त काल में।
(मधु – वसन्त ऋतु।)
मधुरं – मधुर स्वर से, सुरीले स्वर से।
“विरौति” – कुहुकती है, कुहू कुहू करती है, कूजती है ।
“तच्चाम्र” – (तत्) उसकी उस बोली में, (आम्र) आम्रवृक्षों की
“चारु- कलिका” – (चारु) सुंदर-सुंदर, मनोहर (कलिका) कलियों/मँजरियों का
“निकरैक हेतुः” – (निकर) समूह ही, (एक हेतुः) एक मात्र कारण है।
Hindi Meaning (भावार्थ) of Bhaktamar Stotra/Mahima No-6
हैं भगवन, में कम शास्त्रों का जानकार हूं और विद्वानों (शास्त्रों के ज्ञान वाले) के सामने हँसी का स्थान हूं फिर भी आपकी भक्ति ही मुझे बल पूर्वक (जबरन) बोलने के लिये मज़बूर/वाचाल कर रही है। जो कोयल निश्चय से वसंतऋतु मे सुरीली आवाज़ मे कूकती/बोलती है, उसकी उस बोली में आम की सुंदर-सुंदर कलियों/मँजरियों का समूह ही एक मात्र कारण है। इसलिए हैं ईश्वर, मै भक्ति वश आपका स्तवन करूँगा।
आचार्यश्री स्तुति रचना का कारण प्रकट करते हुए उसमें अपने कर्तृत्वपने का निषेध करते है। वे कहते हैं कि हे आदिनाथ भगवन् ! मैं अल्पज्ञ हूँ, शास्त्रों का विशेष जानकार नहीं हूँ; तथापि स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ। ऐसा करने से निश्चय ही में विद्वानों की हंसी का पात्र बनूंगा। मुझमें आपके गुणगान करने की शक्ति तो है नहीं, परन्तु भक्ति अवश्य ही बलवती है जो कि मुझे जबरन स्तुति करने के लिए वाचाल कर रही है-विवश कर रही है।”
जैसे कि कोयल में यदि स्वत: बोलने की शक्ति होती तो वह वसन्त ऋतु के अतिरिक्त अन्य ऋतुओं में भी बोलती हुई सुनाई देती, परन्तु वह तो तभी मीठी वाणी बोलती है; जब कि वसन्त ऋतु में आम्रवृक्षों की मंजरियाँ लहलहा उठती हैं अर्थात् आमों के बोर ही उसके बोलने के प्रेरणा केन्द्र हैं। उसी भांति आपकी गुण-मंजरी ही एक मात्र मुझ अल्पज्ञ की स्तुति का प्रेरणा केन्द्र बनी हुई है।
हमारे ज्ञान का जितना भी अल्पाधिक विकास है, वह मतिज्ञानावरण एवं श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम की तारतम्यता के अनुसार ही व्यक्त है। श्री मानतुंगाचार्यजी अपनी लघुता प्रकट करते हुए कहते हैं कि.-“मुझ में मतिज्ञान का क्षयोपशम तो अल्प है ही साथ ही श्रुतज्ञान का विकास भी अत्यन्त अल्प है।”
तीसरे छन्द में आया हुआ “बुद्धपा विनापि” पद जहां उनकी मतिज्ञान संबंधी अल्पज्ञता की ओर संकेत करता है, वहाँ इसी छंद में आया हुआ “अल्पश्रुतं” पद उनके श्रुतज्ञान की अल्पता को भी सूचित करता है। फिर श्रुतवतां परिहासधाम पद ऐसा सूचित करता है कि कहाँ तो श्रुतधर महर्षि गण और कहाँ मैं ? तात्पर्य यह कि उनकी तुलना में तो में सर्वथा नगण्य हूँ और हो सकता है कि मेरी अल्पज्ञता ऐसे विद्वज्जनों के लिए उपहास का विषय बने।
इतना सब कुछ होते हुए भी उनकी भक्ति में इतनी शक्ति है कि वह जबरन अभिव्यक्ति के द्वार को खोल रही है, अर्थात् स्तोत्रकार को जबरन वाचाल बना रही है-बोलने के लिए विवश कर रही है।
दृष्टान्त द्वारा इसी विषय को स्पष्ट करते हुए वे आगे कहते हैं कि मेरे काव्य में जो भी प्रसाद या माधुर्य गुण परिलक्षित हो रहा है यह सब श्री जिनेश्वर देव की भक्ति का ही प्रताप है।
वसंत ऋतु में कोयल मधुर स्वर में कुहकती है क्योंकि उसके सामने आम्रवृक्षों के रसदार मंजरियों के गुच्छे होते हैं। स्वाभाविक है कि जब अपने सामने कोई अत्यन्त प्रिय वस्तु (जैसे कि रसदार आमों का मौर) हो तो स्वर में अपने आप मधुरता आ जाती है। ठीक उसी प्रकार आपकी भक्ति के विचार मात्र से ही मेरी वाणी में इतनी मधुरता आ रही है।