अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरी- कुरुते बलान्माम्
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र- चारु- कलिका- निकरैक- हेतुः
हे भगवन ! मैं क्या करूं, मैं अल्पश्रुत हूं यानि अल्प बुद्धि वाला हूं और श्रुतवतां यानि ज्ञानियों के परिहास- धाम यानि उपहास का पात्र हूँ। सामने कोई अल्पबुद्धि वाला जाए और अपनी शेखी बघारें तो क्या होगा? हंसी का ही पात्र बनेगा, मैं तो हंसी का पात्र हूं और अल्पश्रुत वाला हूं, मुझे मेरी औकात का पता है। आप के दरबार में जितने बड़े बड़े ज्ञानी है ना, उनके आगे मेरी कोई औकात नहीं है। मैं उनके हंसी का पात्र हूं फिर भी त्वद्भक्तिरेव मुखरी कुरुते बलान्माम् आपकी भक्ति ही मुझसे बलपूर्वक मुखर करवा रही है, मुझे वाचाल कर रही है। मुझे बोलना नहीं आता, मुझे स्तवन करना नहीं आता, मुझे छंद लिखना नहीं आता, मुझे अभिव्यक्ति देना नहीं आता पर क्या करूं सब के हंसी का पात्र होने के बाद भी बड़े-बड़े ज्ञानियों के उपहास का पात्र होने के बाद भी अल्पश्रुत वाला होने के बाद भी मैं क्या करूं आपके प्रति मेरे हृदय की जो भक्ति है ना वह मुझसे बलात मुखर करा रही है, बोल ! कहा बैठा है बोल, तू तो बोलता जा, जो तेरे मुंह से निकले सो बोल और वो बोल रही है, आपकी भक्ति मुझे उत्प्रेरित कर रही है और मैं बोल रहा हूं इसमें मेरा कोई करतीत्व नहीं है। यह भी लीला आपकी ही है। आपकी भक्ति मुझसे बलात बुलवा रही है, जबरदस्ती बुलवा रही है। आपकी भक्ति मुझे बोलने के लिए बाध्य कर रही है। मैं बाध्य हूं भक्ति से अनुबंधित हूं और वह मुझे उत्प्रेरित करके बार बार बार बार वाचाल कर रही है बोल ! और मैं बोल रहा हूं।
उदाहरण क्या बढ़िया दिया है। यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति, मधौ वसंत ऋतु में कोकिलः कोयल जो मधुर मधुर कूक करती है, अपना राव प्रकट करती है विरौति मधुर गुंजार करती, कूक करती है। कोयल वसंत ऋतु में जो मधुर कूक करती है उसके पीछे का कारण क्या है? तो कहते हैं तच्चाम्र- चारु- कलिका- निकरैक- हेतुः वो आम के चारु यानी सुंदर, कलिका यानी मँजारियों का, निकर यानी समूह ही एकमात्र कारण है। जैसे आम के सुंदर-सुंदर मँजरियों को देखकर बसंत ऋतु में कोयलों की कूक सीधे प्रकट होने लगती है। प्रभु ! वैसे ही आपको देखकर मेरे ह्रदय की भक्ति मुझे वाचाल कर रही है, मैं बोलता जा रहा हूं। इसको भी एक रूपक की तरह देखो क्या है! क्या है, वसंत ऋतु है ‘प्रभु’ और कोयल हैं हम ‘भक्त’। उस भक्त के हृदय में जैसे ही आम की मंजरी रूपी भक्ति दिखती है इस भक्त रूपी कोयल के हृदय में उद्गार उत्पन्न होने लगते हैं वे प्रभु का गुणगान करना शुरू कर देते है।
इस छंद से कुछ बातें और हमें समझना है। एक तो इसका नया अर्थ लो। अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास- धाम यह जो हम अर्थ करते हैं, भगवान के सामने चाहे भक्त छोटा हो या बड़ा वह किसी की हंसी का पात्र नहीं बनता। अगर परिहास धाम को भगवान का विशेषण बना ले तो इसका एक नया अर्थ निकलता है। हे भगवन ! आप अल्प श्रुत या अधिक श्रुत वाले सब के परिहास यानी खुशी के, प्रसन्नता के धाम हो। आप अल्प श्रुत वाले और बहु श्रुत वाले सब को प्रसन्नता देने वाले हो। आपके अंदर ज्ञानी हो या अज्ञानी सबके लिए स्थान है सबका उद्धार करने वाले हैं और आपकी भक्ति मुझे मुखर कर रही है, मुझे उत्प्रेरित कर रही है। कह रही है बोलो मैं बोल रहा हूं। मैं नहीं बोल रहा हूं, कौन बुलवा रहा है? भक्ति।
देखिए जब तक मनुष्य के हृदय में भक्ति ना हो उसके अंदर से सही उद्गार प्रकट नहीं होंगे। और हृदय में भक्ति होगी तो अपने आप बोल फूटेंगे। तुम्हें कुछ आता हो तो ना आता हो तो अगर किसी के प्रति तुम्हारे हृदय में भक्ति है, प्रेम है, श्रद्धा है तो उसकी अभिव्यक्ति तुम्हारी वाणी द्वारा होगी और कदाचित वाणी मुक हो जाए तो आंखों से उसकी अभिव्यक्ति होगी प्रकट हो जाता है। अंदर का वो प्रमोद भाव अंदर का वो हर्ष अपने आप प्रकट होता है क्योंकि भक्ति है। आप लोग भगवान के सामने भक्ति करते हो। दूसरों के लिखी लिखाई पंक्तियों को दोहरा देते हो रटी रटाई भक्ति है। वह तुम्हारे अपने हृदय के उद्गार नहीं है। वह तो किसी ने लिख दिया ठीक है हम उसको दोहरा रहे है। आचार्य मानतुंग ने भक्तामर लिखा वो उनकी भक्ति थी। हम तो उसको केवल दोहरा रहे है। क्या करें? हमारे पास उतनी क्षमता नहीं हालाकि उसमें भी हम शब्द दूसरे के हो भाव अपने जोड़ दे तो उसका बहुत प्रभाव पड़ता है। लेकिन केवल पढ़ने की तरह पढ़ेंगे तो उसका कोई प्रभाव नहीं है। मैं आपसे कह रहा था जब भक्ती ह्रदय में प्रस्फुटित होती है तो व्यक्ति मूक नहीं होता मुखर हो उठता है, वह वाचाल हो उठता है। उसके अंदर से स्वर प्रकट होने लगते हैं। यही बात मानतुंग आचार्य कह रहे है मैं कुछ कर नहीं रहा हूं। आपकी भक्ति ही मुझसे जबरदस्ती बुलवा रही है। बोलो ! जो निकले सो बोलो ! जो निकले सो बोलो, बोलते जाओ, बोलते जाओ, बोलते जाओ और आचार्य मानतुंग उसी से उत्प्रेरित होकर के बोलते गए बोलते गए। उनके मुख से निकलने वाले शब्द छंद बनते गए और छंद स्तोत्र बन गया और यह स्तोत्र जन जन का कंठहार बन गया। अपने आप को आगे बढ़ाएं।
एक कवि ने बड़ी अच्छी बात लिखी, मैं तुम तक कैसे आ पाता मुझको पांव मिले ही कब थे देखो भक्ति क्या होती है, मैं तुम तक कैसे आ पाता मुझको पाव मिले ही कब थे जो ले आए चरण यहां तक वह तो पैर तुम्हारे ही थे। मैं तुम तक कैसे आ पाता। मुझको पांव मिले ही कब थे। मैं सामवेद कैसे गा पाता मैं तो था गूंगा बेसुरा, जो लिख पाए छंद यहां पर वे सब शब्द तुम्हारे ही थे। मैं तुम तक कैसे आ पाता, मुझको पांव मिले ही कब थे। यह भक्ति है। हृदय में ऐसी भक्ति का प्रवाह हो जाए तो कायाकल्प हो जाए। अपने मन से पूछो भगवान के प्रति तुम्हारे मन में ऐसी भक्ति कभी प्रकट हुई, गुरु के प्रति तुम्हारे ह्रदय में ऐसी भक्ति प्रकट हुई जो तुम्हें अंदर से उत्तेजित कर दे, हिला डाले। मुश्किल यह है कि दुनियादारी में मनुष्य इतना रचपच जाता है कि भगवान को ही भुला देता है। भगवान को भी याद कब करता है जब सब जगह से हार जाता है, है न? यही आपकी भक्ति है।
एक बार लोक गीत गा रहे थे।
जब कोई नहीं आता, मेरे भगवन आते हैं। मेरे दुख के दिनों में वे बड़े काम आते हैं।
हमने कहा अच्छा है। भगवान को तुमने स्टेपनी बना दिया। पहले सब को आजमा लो बाद में भगवान को आजमाओ तो भगवान भी कहते है मैं स्टेपनी बनना पसंद नहीं करूंगा, वे भी नहीं आएंगे। जब कोई नहीं आता भगवान आते है यह कहने की बात क्यों? जब मैंने भगवान के चरणों में अपना मस्तक झुका दिया तो हमारे उद्गार तो ऐसे होने चाहिए। अब तो तेरे ही भरोसे आदिनाथ भंवर में नैया डाल दई। अब जो है सो तेरा है।