Bhaktamar Stotra Sanskrit-5 [Mahima Path Lyrics]। भक्तामर स्तोत्र

Bhaktamar Stotra-5 Shloka/Mahima/Paath/Chalisa

Sanskrit

सोऽहं तथापि तव भक्ति- वशान्मुनीश

कर्तुं स्तवं विगत- शक्ति- रपि प्रवृत्तः  ।

प्रीत्यात्म- वीर्य- मविचार्य्य मृगी मृगेन्द्रं

नाभ्येति किं निज- शिशोः परिपालनार्थम्   । । 5 । ।

English

Bhaktamar Stotra-5 (Shloka/Mahima/Kavya/Paath) Mp3 Lyrics

BHAKTAMAR STOTRA-5 (Sanskrit & English)

BHAKTAMAR STOTRA-5 SANSKRIT & ENGLISH
BHAKTAMAR STOTRA-5 SANSKRIT & ENGLISH
BHAKTAMAR STOTRA 5
BHAKTAMAR STOTRA 5

घटनाएं घटती है, घट कर निकल जाती है। कुछ लोग हैं जो घटनाओं से पूरी तरह प्रभावित होते हैं और कुछ लोग हैं जो मात्र घटनाओं के साक्षी बन करके जीते हैं I आचार्य मानतुंग के साथ घटित घटना उनके लिए महज घटना थी। वे उसके साक्षी बन करके जी रहे थे। वीतराग भाव से उन ने उसे स्वीकार किया था। उस घटना के क्रम में एक तरफ राजा ने नाराज होकर उन पर बंधन बांधा। आचार्य मानतुंग उससे बिलकुल बेखबर थे। उस बंधन का उन्हें रंच मात्र ध्यान नहीं था।

लेकिन एक दूसरा बंधन जिसे उन्होंने खुद स्वीकार किया था। वह बंधन था भक्ति का बंधन। वे प्रभु परमात्मा से इस तरह एक तान हो गए थे कि उन्हे उसके अलावा और कुछ अच्छा लगता ही नहीं। उस भक्ति के बंधन में बंद कर वो प्रभु में शनलीन होने जा रहे थे। कल कहां गया कि भगवान की भक्ति, में अल्प बुद्धि वाला होकर कर रहा हूं। पर मुझे मालूम है जो महा बुद्धि वाले वे भी आपकी भक्ति नहीं कर सकते। आप की स्तुति नहीं कर सकते। जब वह नहीं कर सकते तो मैं क्यों ना करूं, मैं भी उसी तरह बनू । आज और एक कदम आगे बोल रहे हैं। मैं अपनी स्थिति को अच्छी तरह से जानता हूं। मैं बुद्धिहीन हूं, शक्तिहीन हूं, बालक की तरह असमर्थ हूं, लज्जाहीन हूं। मेरी स्थिति का मुझे पूरी तरह पता है। लेकिन फिर भी मैं आप की भक्ति करने के लिए अंदर से उत्प्रेरित हो रहा हूं। क्यों? मेरे हृदय में आपके प्रति भक्ति उमड़ रही है। क्यों? तो उसका उत्तर! अगले छंद में।

सोऽहं तथापि तव भक्ति- वशान्मुनीश

कर्तुं स्तवं विगत- शक्ति- रपि प्रवृत्तः

प्रीत्यात्म- वीर्य- मविचार्य्य मृगी मृगेन्द्रं

नाभ्येति किं निज- शिशोः परिपालनार्थम्

इस छंद का जो प्रचलित अर्थ है पहले हम उसकी चर्चा करें। सोऽहं वह मैं हूं वह कौन हूं? लज्जाहीन, बुद्धिहीन, शक्तिहीन, बालक की तरह चंद्रमा के प्रतिबिम्ब को पकड़ने की चेष्टा करने वाला, नासमझ नादान वह मैं। तथापि इतना सब कुछ होने पर भी, तव भक्ति- वशात्‌ आपके भक्ति के वशीभूत होकर। किस के वशीभूत होकर? आपकी भक्ति के वशीभूत होकर। क्या कर रहा हूं? विगत- शक्ति- पि शक्तिहीन होकर भी शक्ति रहित होकर भी स्तवं कर्तुं प्रवृत्तः आपकी स्तुति करने के लिए प्रवृत्त हो गया हूं। क्या करने के लिए प्रवृत्त हो गया हूं? आप के स्तवन के लिए प्रवृत्त हो गया हूं। मैं जान रहा हूं मुझ में बुद्धि नहीं, मैं जान रहा हूं मुझ में शक्ति नहीं, मुझ में कोई ताकत नहीं। मैं बालक जैसी चेष्टा कर रहा हूं। मैं लज्जा हीन होता हुआ भी आपकी भक्ति कर रहा हूं। आपकी स्तुति में प्रवृत्त हो रहा हूं। क्यों? तव भक्ति- वशात्‌ आपकी भक्ति की वजह से, भक्ति के वशीभूत होकर I हे मुनिश ! हे मुनियों के ईश! हे मुनियों के नाथ! मानतुंग आचार्य यह नहीं कह रहे कि मेरे ईश, वह कह रहे मेरे नहीं, मेरे जैसे सभी मुनियों के ईश, सभी मुनियों के ईश नहीं, सारे जगत के ईश, हे जगदीश ! हे मुनिश ! हे मुनिनाथ। मैं अपनी स्थिति को भलीभांति जानते हुए भी आपकी स्तुति में प्रवृत्त हो रहा हूं। शक्तिहीन होते हुए भी आपकी स्तुति करने के लिए प्रवृत्त हूं।

उदाहरण क्या दिया प्रीत्यात्म- वीर्य- मविचार्य्य मृगी मृगेन्द्रं किं नाभ्येति अपितु अभ्यति एव् क्या कोई हिरनी? अपने बच्चे को बचाने के लिए अपनी शक्ति और सामर्थ्य का विचार किए बिना सिंह के सामने नहीं आती, अवश्य आती है ! बात को थोड़ा गहराई से समझना है। उदाहरण क्या दिया जैसे किसी हिरनी के सामने उसके बच्चे को खूंखार शेर ने पकड़ लिया हो। तो शेर पकड़ ले तो उस घड़ी हिरनी अपनी असमर्थ और अल्प शक्ति का विचार किए बिना शेर का मुकाबला करने के लिए आगे आ जाती है, छोड़ो कुछ भी हो मेरे बच्चे को तुम मेरे जीते जी छू नहीं सकते। तो जैसे हिरनी अपने बच्चे के प्रति प्रीति रखने के कारण अपनी सामर्थ्य का विचार किए बिना शेर का मुकाबला करने के लिए तत्पर हो जाती है क्योंकि वह प्रीति से भरी है। प्रभु हिरनी के हृदय में बच्चे के प्रति प्रीति है, मेरे हृदय में आपके प्रति प्रीति है और वह मेरी भक्ति बनकर प्रकट हो रही है। मैं भक्ति के वशीभूत हूं। 3 शब्दों पर ध्यान देना प्रीति शक्ति और भक्ति। प्रीति यानि प्रेम, प्रेम एक प्रकार का संवेग है। जब मनुष्य के हृदय में कोई संवेग जगता है तो उसके अंदर असाधारण शक्ति प्रकट होना शुरू हो जाती है। उसकी शक्ति उद्घाटित होने लगती है। शक्ति प्रकट होती है। जैसे कई बार कोई व्यक्ति गुस्से में होता क्रोध का भी एक संवेग है। मनोवैज्ञानिक इस बात को कहते हैं जब क्रोध हो तो आदमी के अंदर अतिरिक्त ताकत आ जाती है। क्रोध की स्थिति में उस सामान को भी उठा लेता है जिसे सामान्य स्थिति में आदमी हिला ना सके तो जैसे क्रोध का संवेग होता है, वैसे ही प्रेम का भी संवेग है। प्रीति प्रभु से, भक्ति प्रभु की ! मेरे मन में प्रीति है और प्रभु के प्रति भक्ति है तो शक्ति न होने पर भी शक्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। वो प्रीति की शक्ति है जो भक्ति से प्रेरित है। क्या हिरनी आगे नहीं आती है? अपितु आती ही है!

 

एक कवि ने बहुत अच्छी बात लिखी। एक शेर ने हिरनी को पकड़ लिया। हिरनी को पकड़ लिया तो हिरनी ने उससे कहा कि देख! तुम्हें मुझे खाना है खा लेना। अब मैं तुम्हारा शिकार हूं पर मेरी एक छोटी सी रिक्वेस्ट है उसे मान लो तो बहुत अच्छा होगा। क्या रिक्वेस्ट है? मेरा बच्चा भूखा है मैं चाहती हूं मरने के पहले उसे एक बार दूध पिला लूँ। तुम मेरा पूरा भक्षण कर लेना मेरे दो स्तनों को छोड़ देना, क्योंकि मेरा बच्चा अभी घास खाने लायक नहीं है। तुम मुझे खा लेना पर मेरे स्तनों को छोड़ देना। हिरनी के निवेदन पर शेर का मन बदल गया। उसने कहा ठीक है ले आओ बच्चे को एक बार दूध पिला लो। वह बच्चे के पास गई दूध पिलाने के लिए और बच्चे से कहा बेटा जल्दी से दूध पी ले। बच्ची ने कहा, क्या बात है मां आज तू इतनी उदास क्यों दिख रही है। तेरा चेहरा इतना मुरझाया मुरझाया क्यों है।  बस बेटे बात मत कर तू जल्दी से दूध पी ले, नहीं माँ मे ऐसे दूध नहीं पियूँगा। आखिर तू बता कि तुझे हो क्या गया है? बेटा बस तुझसे कह रही हूं ना तू दूध पी ले आज के बाद फिर मैं तेरे को दूध नहीं पिला पाऊंगी मुझे जाना है। कहां जाना है? अंततः सारी बात बच्चे से बतानी पड़ी। जब बच्चे से बताया तो बच्चे ने कहा अरे ! मेरे रहते शेर तुझे खाएगा ये कैसे हो सकता है, पहले मुझे खाएगा फिर तुझे खाएगा। मैं यह स्वीकार नहीं सकता। मुझे दूध नहीं पीना है। चलो जो गति तेरी वो गति मेरी। मैं भी चलता हूं। शेर ने देखा कि हिरनी आ गई और उसके साथ उसका बच्चा भी है। पहले तो उसे उम्मीद नहीं थी कि लौट के भी कोई आएगा लेकिन अपने साथ बच्चे को लाता देखकर शेर को और आश्चर्य हुआ और जैसी हिरनी पहुंची बोली, मैं अपने वायदे के अनुसार आपके पास आ गई हूं। आप जल्दी से मेरा भक्षण कर लो और अपनी क्षुदा मिटा लो। जैसे हिरनी आगे आई उसका बच्चा आगे आ गया कि नहीं पहले मेरा भक्षण करो फिर मेरी मां का करना और माँ कहती मेरे सामने मेरे कलेजे के टुकड़े का टुकड़ा हो यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती। पहले मुझे खाओ, फिर मेरे बच्चे को खाना। जब हिरनी आगे आए तो उसका बच्चा आगे आ जाए और बच्चा आगे आए तो हिरनी आगे आ जाए।

यह दोनों के प्रेम के इस परिदृश्य को देखकर शेर का हृदय द्रवीभूत (Liquified) हो गया। उसने कहा, मेरी भूख तो तुम्हारे प्रेम से मिट गई। मैं दोनों को अभय देता हूं। मुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं है। यह प्रीति की शक्ति है, यह प्रेम की शक्ति है।

तो यह उदाहरण आचार्य मानतुंग ने जो दिया बड़ा मौलिक उदाहरण है। हम इसमें से कुछ और खास बातें ले।

पहली बात तो हम अब सीधा सीधा अर्थ इस छंद का लेते हैं कि हे भगवान बुद्धिहीन, लज्जाहीन, शक्तिहीन, बालक वध चेष्टा करने वाला होने के बाद भी मैं आपकी भक्ति के वशीभूत होकर आप की स्तुति के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। में प्रवृत्त हो गया हूं क्योंकि मेरे मन में आपकी भक्ति है। मैं आपके भक्ति के वशीभूत हो गया हूं। कोई किसी के वशीभूत हो जाए तो क्या होता है? वो उसका अनुगामी होता है, उसका कायल हो जाता है, उसका दीवाना बन जाता है, सामने वाला जैसा कहता है करता है। वह करते जाता है करते जाता है, यंत्र वत बस मैं आपकी भक्ति के वशीभूत हूं, मैं कर रहा हूं। एक अर्थ तो यह हुआ।

इसका दूसरा आध्यात्मिक अर्थ एक और है। 3 अर्थ इसमे से निकालिए यह जो अर्थ अब मैं बताने जा रहा हूं आपको किताबों में नहीं मिलेगा। सोऽहं जितनी बातें ऊपर बताई गई, वैसा मैं हूं तथापि आपका हूं। जैसा भी हूं तेरा हूँ। यह भी भक्ति के उद्गार है, अच्छा हूं तो, बुरा हूं तो सब हूं, तेरा हूं, माना पापी हूं, दुरात्मा हूं, जरडी हूं, बुद्धिहीन हूँ, लज्जाहीन हूँ, शक्तिहीन हूँ, अरे हूँ कुछ भी हूँ पर तेरा हूं। अब तेरे दर पर आ गया हूं। जो हूं तेरा हूं, अच्छा हूं तो तेरा हूं और बुरा हूं तो तेरा हूं। अब यह तेरे ऊपर निर्भर करता है कि मेरा उद्धार कर दो। जो कुछ है वह सब कुछ होने के बाद भी तथापि उसके उपरांत भी मैं तेरा हूं, प्रभु तुम्हारा हूं। भक्ति के वशीभूत होकर आपकी स्तुति करने के लिए मैं प्रवर्तक हुआ हूँ।

इसका एक तीसरा अर्थ जो बड़ा गाढ़ तातवीक अर्थ है। प्रभु आपने कल मुझसे मेरा परिचय देने के लिए कहा था तो मैंने आपसे कहा था, मुझे अपना परिचय आपको नहीं देना क्योंकि आपसे कुछ अपरिचित नहीं। मैं तो आपका परिचय पाने के लिए आया हूं और जब आपका परिचय पाया तो उसका प्रतिबिंब मुझे मेरे भीतर दिखा। सोऽहं जो आप हो वही मैं हूं तत्वतः   आप में और मुझमें कोई अंतर नहीं है।

सोऽहं कोहं? अध्यात्मिक साधना की शुरुआत इस सवाल से होती है कोहं? तो उत्तर आता सोऽहं मैं आपके समान हूँ बस आपका ही प्रतिरूप मुझ में प्रतिबिंबित है समाहित है। आपकी छवि में मैंने अपना प्रतिबिम्ब देख लिया। अभी तक मैं अपने आपको जानता नहीं था, पहचानता नहीं था, इसलिए संसार में रुलता रहता था। अब मुझे समझ में आ गया कि प्रभु! मेरे अंदर भी आप ही विराजमान हो, मुझ में और आप में कोई तत्वतः अंतर नहीं, लेकिन मैं प्रभु होकर के भी दास जैसा आचरण करता रहा। आज मुझे समझ में आई बात और अब मैं अपने इस बंधन को तोड़ कर अपने स्वरूप को निखारने की कोशिश करूंगा। ठीक तो तू भगवान है तो भक्ति क्यों कर रहा है? तथापि तव भक्ति- वशा जान रहा हूं तत्वतः मैं हूं फिर भी आपकी भक्ति के वशीभूत होकर आपकी स्तुति करने के लिए प्रवित्त हुआ हूँ। यह तीसरा अर्थ समझ में आया?

अब यहां पर जो हिरनी का उदाहरण दिया है इसमें भी मुझे एक रूपक प्रतीत होता है। शेर के सामने हिरनी आए, हिरनी के बच्चे को शेर अटैक करें। हिरनी उसको बचाने के लिए खुदकों आगे करें, यह घटना अपनी जगह है। पर मुझे एक शेर भी दिख रहा है, एक हिरनी भी दिख रही है, उसका बच्चा भी दिख रहा है और उस बच्चे को बचते हुए भी देख रहा हूं। वह शेर कौन है? विषय कषायों का खूंखार शेर मृग श्रावक रूपी भक्त पर अटैक करता है। मृग श्रावक क्या है? हम आप सब भक्त? और इस मृग श्रावक पर जब विषय कषाय रूपी शेर आक्रमण करता है तो भक्ति रूपी हिरनी आकार उसकी रक्षा कर लेती है और उसका जीवन सुरक्षित हो जाता है। जब भी मन में विषयों का ख्याल आए, अपने हृदय को भक्ति सभर कर लो, भक्ति से भर लो। यह विषय कषाय तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएंगे पूरा बेड़ा पार होगा जीवन का उद्धार होगा। तो भगवन आपके भक्ति के वशीभूत होकर में कर रहा हूं।

लेकिन अब आगे बढ़ रहे हैं। अभी तो मैं आपके वश में होकर कर रहा था लेकिन अब तो बात और आगे बढ़ गई। आप मुझसे करा रहे हो? क्या करा रहे हो? एक होना किसी के वशीभूत हो जाना तो उसके पीछे लग जाना और एक स्थिति होती है कोई व्यक्ति हमसे कुछ जबरदस्ती काम कराएं बलात कराएं। अंतर है ना? वशीभूत होते तब उसके पीछे लगते हैं लेकिन जब कोई काम हम पर बलात कराया जाता है तो हमारी इच्छा अनिछा नहीं होती, हम उस कार्य को करने के लिए बाध्य होते हैं और प्रभु अब तो मैं इस भूमिका में आ गया हूं कि मैं आपकी स्तुति करने के लिए पूरी तरह बाध्य सा हो गया हूं। मैं नहीं बोल रहा हूं। आप ही मुझसे बुलवा रहे हो? मैं स्तुति नहीं कर रहा हूं। मेरे अंदर से स्तुति के बोल आप निकलवा रहे हो।

कड़े शब्दों के शब्दार्थ (Meaning of difficult Sanskrit words)​

“मुनीश”- हे मुनीश्वर ऋषभदेव – हे मुनीन्द्र आदिदेव !

विशेषार्य(मुनि) – साधु, उनके (ईश) – स्वामी – ईश्वर – वे मुनीश, श्री जिनेश्वर देव साधु संघ के स्वामी होते है, अत: उनको इस प्रकार के विशेषण दिए है । यहा मुनीश पद से श्री ऋषभदेव भगवान को संबोधित किया है ।
“सः” – वह असमर्थ – अशक्त- सामर्थहीन ।

“अहम” – में  मानतुंग ।

तथापि” – फिर भी ।

“भक्तिवशात्” – भक्ति के कारण – भक्ति के लिए ।

“विगत शक्तिः” – शत्तिहीन – शत्ति रहित ।
विशेषार्थ : (वि) विशेष रूप में, (गत) चली गई है, (शक्ति)(बल, ताकत, एनर्जी) जिसको ऐसा वह विगतशक्ति अर्थात् शक्ति विहीन ।
“अपि”- होते हुए भी।

“तव स्तवं कर्तुम्” – तुम्हारे गुण कीर्तन को करने के लिए ।

“प्रवृत्तः” – तत्पर हू, सन्नद्ध हूँ !

“मृगी” – हरिणी ।

“प्रीत्या” – प्रीति से, स्नेहातिरेक से (Affectionate) ।

“आत्मवीर्यम्” – अपने सामर्थ्य को।
विशेषार्थ(आत्म) अपना, (वीर्य) शक्ति, वही हुआ आत्मवीर्यम्

“अविचार्य” – बिना विचारे ।

“निजशिशोः” – अपने बच्चे की।
विशेषार्थ – (निज) अपने, (शिशु) बालक, वही हुआ  निजशिशोः।  

“परिपालनार्थम्” – रक्षा करने के लिए ।


“किम्” –  क्या ?

“मृगेन्द्रं न अभ्येति” – सिंह का सामना नहीं करती ? अर्थात् अवश्य करती है ।
विशेषार्थ – (मृग) पशु, उनका (इन्द्र) राजा, वही हुआ मृगेन्द्र अर्थात् पशुओं का राजा।

Hindi Meaning (भावार्थ) of Bhaktamar Stotra/Mahima No-5

हैं मुनियों के ईश्वर/नाथ ! ऐसा मै (लज्जाहीन, बुद्धिहीन, शक्तिहीन, बालक की तरह असमर्थ, नासमझ नादान) यद्यपि आपके अनन्त गुणों का वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है, फिर भी आपकी भक्ति के वशीभूत होकर शक्ति रहित होते हुए भी आपकी स्तुति करने के लिये तैयार हुआ हूँ। जैसे अपने बच्चे की रक्षा करने के लिये हिरनी अपनी शक्ति को बिना विचारे प्रीति के कारण सिंह के सामने नहीं जाती है क्या? अवश्य जाती है I

हे यतीश्वर ! युगादिदेव !!
एक तो आप में चन्द्रमा के समान आल्हादक अमृतमय शीतल-शान्त और उज्ज्वल कान्ति वाले अनन्त गुण है । दूसरे मेरी बुद्धि अत्यन्त अल्प है; तीसरे बाल चेष्टाओं से युक्त हैं । इन सब असमर्थताओं के होते हुए भी जो मैं आपके गुण रूपी समुद्र को पार करने का असफल प्रयास कर रहा हूँ (अर्थात् आपकी स्तुति करने के लिए तैयार हो रहा हूँ ) उसमें एक मात्र आपकी भक्ति की प्रेरणा ही मूल रूप से विद्यमान है । जैसे अपने शिशु (मृग शावक) पर झपटते हुए विकराल सिंह को देखकर प्रीति और वात्सल्य से प्रेरित हरिणी उसको बचाने के लिए अपनी शक्ति की परवाह न करके क्या उस मृगराज का सामना नहीं करती ? अर्थात् अवश्य करती है ।

हरिणी अपनी शक्ति को शिशु वात्सल्य के कारण भूल जाती है और मैं (मानतुंग) अपनी शक्ति को भक्ति के कारण भूल रहा हूँ ।

अभी तक आचार्य श्री मानतुंग मुनि ने भक्तामर के प्रथम छंद में मंगलाचरण पूर्वक आदिनाथ भगवान को नमन किया और उसके पश्चात् क्रमशः दूसरे, तीसरे तथा चौथे छन्द में उन्होंने अपनी लघुता, अल्पज्ञता एवं असमर्थता को एक कोटि मे रखा तो दूसरी कोटि में श्री आदिनाथ भगवान के गुणों की प्रचुरता, अनन्तज्ञान की प्रभुता तथा अनन्तशक्तिमत्ता को रखा। ये दोनों कोटिया परस्पर में सर्वथा विपरीत हैं अथवा इतनी अधिक असम्भव हैं जितनी कि किसी सरिता के दो तटों का मिलना । तथापि इस असम्भवता को जोड़ने का प्रयत्न अपने काव्य वैभव एवं भक्ति के बल पर करने के लिए वे तत्पर हुए हैं। अर्थात् भक्ति के माध्यम से अशक्ति भी शक्ति बन कर मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रही है । इसके लिए आचार्य श्री ने एक बहुत ही सुन्दर दृष्टान्त प्रस्तुत किया है –
वात्सल्य भक्ति, प्रेम और ममता का एक सशक्त प्रतीक माना जाता है।

मानव में ही नहीं प्रत्युत तिर्यंच पशुओं में भी यह वात्सल्य भावना दृष्टिगत होती है और उसका ज्वलन्त उदाहरण उस समय देखा जाता है कि जब किसी हरिणी का नन्हा सा शावक (वत्स) शेर के चंगुल में आ जाता है तब यदि ऐसे समय में हरिणी वहाँ उपस्थित हो तो वह मूक बन कर अपनी ममता भरी आँखों से उसका वध कतई नहीं देख सकती। यद्यपि वह जानती है कि सिंह का मुकाबला करना उसकी शक्ति के बाहर है तथापि वात्सल्य एवं प्रेम की जबरदस्त भावना उसे सिंह का सामना करने के लिए प्रेरित करती है। भले ही उसमें उसे सफलता मिले या नहीं, किन्तु कर्तव्य से विमुख नहीं होती। इसी दृष्टान्त के समानान्तर कवि श्री ने अपने को लघु, अशक्त एवं अल्पज्ञता की कोटि में रख कर भी उत्कृष्ट भक्त सिद्ध किया है अर्थात् इस भक्ति की प्रवलता ने उपर्युक्त तीनों प्रकार की निर्वलताओं पर विजय प्राप्त की है और इस प्रकार भक्ति रस से परिपूर्ण यह सम्पूर्ण काव्य भक्तामर के नाम को इसी छन्द में सार्थक कर देता है ।