“त्रिजगदीश्वर” – तीनों लोकों के स्वामी ।
विशेषार्थ – (त्रिजगत्) तीनों जगत का समूह, उसके (ईश्वर) नाथ, यह पद संबोधन विभक्ति में प्रयुक्त हुआ है।
“सम्पूर्ण- मण्डल- शशाङ्क- कला- कलाप- शुभ्रा” – पूर्णमासी के चन्द्र-मण्डल की कलाओं के सदृश समुज्ज्वल ।
विशेषार्थ – (सम्पूर्ण) पूर्णरूप से ऐसा (मण्डल) गोलाकार उसमे युक्त (शशाङ्क) चन्द्रमा, उसकी (कला) किरण उसका (कलाप) समूह वही हुआ सम्पूर्णमण्डलाताकाकलाप । उसके समान ही (शुभ्रा) धवल, उज्ज्वल।
“तव गुणा:” – आप के गुण ।
विशेष – यहां गुण शब्द से क्षमा, समता, वैराग्य आदि अनन्त सद्गुणो को ग्रहण करना चाहिए।
“त्रिभुवनम्” – तीनों लोको को।
“लंघयन्ति” – उलंघन करते हैं अर्थात् त्रिभुवन में व्याप्त हैं।
“ये” – जो।
“एकम्” – एक अर्थात् अद्वितीय।
“नाथम्” – त्रिभुवन के स्वामी को।
विशेष – यहां नाथ प्राब्द से अद्वितीय सामर्थ्य वाले स्वामी को समझना चाहिये।
“संश्रिता” – आश्रय करके रहने वाले ।
“यथेष्टम्” – स्वेच्छानुसार अर्थात् अपनी इच्छा के अनुसार।
“संचरतो” – सम्पूर्ण लोक में विचरण करने से ।
“तान्” – उनको।
“क:” – कौन (पुरुष)।
“निवारयति” – निवारण कर सकता है अर्थात् रोक सकता है ? कोई भी नहीं।