“सुर- नरोरग- नेत्रहारि” – देव, मनुष्य और भवनवासी नागकुमार जाति के देवेन्द्र (धरणेन्द्र) आदि के नेत्रों को हरण करने वाला।
विशेषार्थ – (सुर) देव, (नर) मनुष्य और (उरग) भवनवासी देव उनके (नेत्र) लोचन, उनको हरण करने वाला अर्थात् अतीव अनुपम सुन्दर।
“निःशेष- निर्जित- जगत्- त्रितयोपमानम्” – सम्पूर्ण रूप से तीनों लोकों के उपमानों को जीतने वाला अर्थात् उपमा रहित ।
विशेषार्थ – (निःशेष) सम्पूर्ण रूप से, (निर्जित) जीत लिए है, जिसने (जगत्त्रितय) तीनों लोकों के (उपमान) वह वस्तु जिसके साथ उपमेय की तुलना की जावे उसे उपमान कहते है । यथा चन्द्र कमल दर्पण आदि ।
“ते” – तुम्हारा।
“वक्त्रम्” – मुख, आनन ।
“क्व” – क्या, कहाँ ?
“कलङ्क- मलिनं” – काले-काले धब्बे से मलीन ।
विशेषार्थ – (कलङ्क) दाग या धब्बा, उससे (मलिन) मैला। (कलङ्क) यद्यपि कालिमा को कहते है, तथापि विशेष रूप से उसका प्रयोग चन्द्रमा के विद्यमान काले धब्बे के लिए किया जाता है।
“निशाकरस्य” – चन्द्रमा का।
विशेषार्थ – (निशा) रात्रि, उसका (आकर) भण्डार अर्थात् चन्द्रमा ।
(बिम्बं) मण्डल, बिम्ब ।
“यत्” – जो (बिम्ब)।
“वासरे” – दिन में।
पाण्डु पलाश- कल्पम् – जीर्ण-शीर्ण हुए टेसू (ढाक) के पत्र के समान फीका।
विशेषार्थ – (पाण्डु) जीर्ण-शीर्ण फीका, ऐसा (पलास) – किंशुक पत्र (टेसू, ढाक, छेवला) उसके (कल्पम्) समान। पहिले पत्ते का रंग हरा होता है किन्तु जब वह जीर्ण हो जाता है तब उसका रंग पीला अर्थात् फीका पड़ जाता है।
“भवति” – होता है।