“त्रि– भुवनैक- ललाम- भूत!” – हे अद्वितीय त्रैलोक्य शिरोमणि – हे तीन लोक के अनुपम अलंकार रूप (भगवान्!)।
विशेषार्थ – (त्रि) तीन, (भुवन) लोक का समुदाय वही हुआ (त्रिभुवन) उसमें (एक)-अद्वितीय-अनुपम ऐसा (ललामभूत)-अलंकाररूप-शिरोभूषणरूप । यह पद जिनदेव के संबोधन रूप में लिया गया है । ललाम शब्द का सामान्य अर्थ सुन्दर श्रेष्ठ रमणीय है, परन्तु विशेष अर्थ में सिर से आगे मस्तक के आभरण को ललाम कहते हैं।
“शान्तराग- रुचिभिः” – मोह, ममता, राग आदि के शान्त (क्षय) होने से प्रशम रस की कान्ति प्रकट हुई है जिसमें ऐसे-वीतरण-भावना के उत्पादक।
विशेषार्थ – (शान्त) क्षय हो गया है (राग) मोह ममता जिनकी वे हुए शान्तराग उसकी (रुचि) कान्ति-से युक्त अर्थात् जिसके मुख मण्डल पर प्रशम रस की कान्ति दैदीप्यमान है ।
“यैः परमाणुभि:” – जिन परमाणुओं से।
विशेषार्थ – जो अणु अत्यन्त सूक्ष्म है अर्थात् पुद्गल द्रव्य का वह अविभागी मूक्ष्म प्रतिच्छेद जिमका कि अन्य विभाग न होता हो वह परमाणु कहलाता है, उन परमाणुओं के द्वारा।
“स्वम्” – तुम।
“निर्मापित:” निर्मापित किये गए हो – बनाये गए हो।
“ते” – वे ।
“अगव:” – परमाणु ।
“अपि” – भी।
“खलु” – निश्चय से।
“तावन्त” – उतने।
“एव” – ही।
“यत्” – क्योंकि ।
“पृथिव्यां” – समस्त पृथ्वी तल पर ।
“ते” – तुम्हारे।
“समानम्” – सदृश – समान ।
“अपरम्” – कोई दूसरा।
“रूपम्” – रूप-सौन्दर्य ।
“न हि” – नहीं।
“अस्ति” – है।