Bhaktamar Stotra Sanskrit-10 [Mahima Path Lyrics]। भक्तामर स्तोत्र

Bhaktamar Stotra-10 Shloka/Mahima/Paath

Sanskrit

नात्यद-भुतं भुवन- भूषण भूत- नाथ!

भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्त- मभिष्टु- वन्तः   ।

तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा

भूत्याश्रितं इह नात्मसमं करोति  ।।10।।

कड़े शब्दों के शब्दार्थ (Meaning of difficult Sanskrit words)​

भुवन- भूषण – हे विश्व के शृंगार!
विशेषार्थ – (भुवन) लोक, जगत, विश्व, उसके (भूषण) मंडन, अलंकार, शृंगार, वही हुआ भुवनभूषण।

भूत- नाथ! – हे जगन्नाथ- हे प्राणियों के स्वामिन्!
विशेषार्थ  – (भूत) प्राणी। उनके (नाथ) स्वामी, वही हुए भूतनाथ । लौकिक शास्त्रों में भूतनाथ शब्द शंकर जी के अर्थ में भी प्रसिद्ध है।


भूतै:” – वास्तविक, प्रभूत, विपुल, विद्यमान ।

गुण:” गुणों के द्वारा ।

भवन्तम् – आपको।

अभिष्टुवन्त:” – भजने वाले भव्य पुरुष ।

भुषि– पृथ्वी पर, भूतल-तल पर ।

भवतः – आपके।

तुल्या – सदृश, समान ।

भवन्ति – हो जाते है।

इति – (यह) इति शब्द यहां पर अध्याहार से ग्रहण किया गया है।

अति – अधिक, बहुत ।

“अद्भुतम्”– आश्चर्यजनक, विचित्र, विलक्षण ।

“न”  – नहीं है।

“वा” – अथवा ।

“ननु” – निश्चय से।

“तेन” – उस (मालिक अथवा स्वामी से)।

“किम्” – क्या।

प्रयोजनमस्ति –  लाभ है।

यः” – जो (मालिक)

“इह”  –  इस लोक में।

“आश्रितम्”  –  अपने अधीन सेवक को

“भूत्या”  –  विभूति से, धन-सम्पत्ति से, ऐश्वर्य से ।

“आत्मसमम्” – अपने समान।

“न”  – नहीं।

“करोमि” – करता है।

Hindi Meaning (भावार्थ) of Bhaktamar Stotra/Mahima No-10

हे तीनों लोकों के आभूषण स्वरूप, हे समस्त जीवों के नाथ, हे भगवन, इस पृथ्वी पर आपके पवित्र गुणों का स्तवन करने वाले यदि आपके समान हो जाते है तो इसमें अत्यंत आश्चर्य नहीं है I अथवा निश्चय से उस मालिक से क्या लाभ है जो इस लोक में अपने आश्रितों को वैभव/धन सम्पत्ति से अपने समान नहीं कर लेता ।

हे त्रैलोक्यतिलक ! जगन्नाथ ! विद्यमान विपुल (विशाल; बड़ा; विस्तृत) एवं वास्तविक गुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले भव्य-पुरुष निःसन्देह आप के ही तुल्य प्रभुता को प्राप्त कर लेते हैं इसमे आश्चर्य करने योग्य कुछ भी नहीं है। क्योंकि जो विश्व के वैभव सम्पन्न श्रीमान् है यदि वे अपने आश्रित सेवकों को अपने जैसा ही समृद्धिशाली नहीं बना लेते तो उनके धनिक होने से लाभ ही क्या है ?

‘अरिहंता लोगुत्तमा’ – अरिहंत इस लोक के सबसे अधिक उत्तम पुरुष है- सर्वोत्तम है इसलिए उन्हें भुवनभूषण कहना युक्ति संगत ही है। यहाँ लोक शब्द में तीनों लोक गर्भित है और उत्तम शब्द का भाव भूषण शब्द में व्यक्त होता है। यही कारण है कि आचार्यों ने तीर्थंकर भगवन्तों को लोकोत्तम विशेषण से संबोधित किया है। भुवनभूषण पद में अनुप्रास जन्म लालित्य होने से स्तुतिकर्ता ने इस छंद में इसे प्रयुक्त किया है।

उपरोक्त विशेषण के समानान्तर ही जो ‘भूतनाथ’ शब्द संबोधन में आया है उसमें भी श्लेष की निराली छटा है क्योंकि भूतनाव के लौकिक अर्थ “महादेव” तथा “प्राणियों के नाथ” – ये दोनों होते हैं । भव-भ्रमण से प्राणियों की रक्षा करने वाले होने से वे भूतनाथ है तथा उनसे महान् दूसरा कोई देव नहीं । क्योंकि चतूर्निकाय के देवेन्द्र उनकी वन्दना करते है – अर्चना करते हैं इसलिए भूतनाथ शब्द भी सार्थक ही है। जिन्हें लौकिकजन महादेव शिवशंकर के नाम से पूजते है वे यथार्थ में कैलाशपित वृषमेश्वर ही है।

स्तवनकर्ता आचार्य कहते है कि हे भुवन भूषण भूतनाथ ! आप में विद्यमान वास्तविक, विपुल गुणों का कीर्तन करने वाले भव्य भक्त यदि आप जैसे ही प्रभु बन जाते हैं तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं ! क्योंकि इस लोक में जो धनीमानी श्रीमान् है वे भी अपने आश्रित सेवकों को विपुल आर्थिक सहायता देकर अपने ही समान समृद्धिशाली बना लेते है। यहां पर आचार्यश्री ने जहां तीर्थकर भगवन्तों के शासन में साम्यवाद की झलक दिखलाई है वहां दूसरी ओर उन धनिक शासकों पर भी कटाक्ष किया है कि जो अपने आश्रित अधीन सेवकों को अपने समान समृद्धिशाली नहीं बनातें तो फिर उनके विपुल वैभवशाली होने का क्या लाभ ? अथवा उनकी समृद्धि से क्या प्रयोजन ?

जैन-शासन में साम्यवाद और समाजवाद की जितनी प्रतिष्ठा पाई जाती है उतनी अन्यत्र नहीं; यदि वर्तमान युग उसका अनुकरण करे तो विश्व की सारी समस्याएं ही समाप्त हो जावें।

तात्पर्य यह कि जो भक्त जिनेन्द्र प्रभु का गायन करता है वह कभी अनाथ बन कर संसार-सागर में गोते नहीं खाता बल्कि अपने प्रभु के समान ही अक्षय पद को प्राप्त कर लेता है।
इस छंद में एक अन्य भाव की छाया का भी यहाँ प्रतिभास मिलता है – वह यह कि हे जिनेश्वरदेव जो में यहां आपका प्रशस्त कीर्तन कर रहा हूँ वह नियम से कालान्तर में सिद्ध पद को प्राप्त करायेगा।