भक्तामर स्तोत्र एक अपूर्व भत्तिस्तोत्र है। भक्ति एक त्रिमुखी प्रक्रिया है,जिसके तीन केद्रविन्दु है –
- भक्त 2. परमात्मा और 3. भक्ति।
भक्त आत्मा और परमात्मा के बीच सम्बन्ध जोड़नेवाला प्रशस्त भाव भक्ति है। परमात्मा जैसे भाव “स्व” में प्रकट करना परमार्थ भक्ति है।
“भक्तामर” यह कितना प्रिय शब्द है। हमारे साथ कई बार सांसारिक रिश्तो, संबंधों के शब्द-नाम जुड़ते आये हैं, पर कभी हमारे साथ परमात्म शब्द सयुक्त हुआ देखा क्या?
“भक्तामर” यह एक ऐसा शब्द है जिसमे हम परमात्मा के साथ हैं या ऐसा कहें कि परमात्मा हमारे साथ है।
“भक्त” याने भक्त-आत्मा। “अमर” शब्द का अर्थ देव होता है और दूसरा अर्थ होता है मोक्ष, तीसरा अर्थ होता है जो अमर स्थान को प्राप्त कर चुके, वे परमात्मा-सिद्ध।
“अमर” याने वह स्थान जहाँ जाने पर मृत्यु नही होती अथवा “अमर” याने वह जो अब कभी भी मरनेवाला नही है, क्योकि मरता वह है जिसका जन्म होता है। जो देह-पर्याय से ही सर्वथा रहित है उनका तो जन्म क्या और मृत्यु क्या?
ऐसे परमात्म भाव के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर जो कृतकृत्य हो गये, उनके साथ जुडकर वैसा हो जाना कितना दुरूह है। “भक्तामर स्तोत्र” ऐसी परम सहजावस्था तक पहुँचाने का सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर सफल रहा है।
भक्त अर्थात् जीव-आत्मा नवतत्त्वों मे प्रथम तत्त्व। “अमर” याने मोक्ष नवतत्त्वों मे अन्तिम तत्त्व। प्रथम तत्त्व की समापत्ति अन्तिम तत्त्व मे है। आत्मा सहज मुक्तावस्था मे परमात्मा हो जाता हे या परमात्मा कहलाता है। अतः भक्तामर याने आत्मा-परमात्मा का मिलन, आत्मा-परमात्मा का दर्शन, आत्मा-परमात्मा का चिन्तन और अन्त मे परमात्मदशा प्राप्त करने की सर्वश्रेष्ठ सफल साधना है।