48 Bhaktamar Mahima Sanskrit [Stotra Path Lyrics ] Powerful Healing Mantra
भक्तामर महिमा | आदिनाथ स्तोत्र | आचार्य मानतुंग | सातवीं शताब्दी | जैन महामंत्र
भक्तामर स्तोत्र की महिमा अपूर्व है, महाप्रभावक है। जो पुरुष श्रद्धा पूर्वक नित्य-नियमित इस महान् स्तोत्र का पाठ करता है उसके हृदय रूपी कमल की पांखुड़ियां प्रस्फुटित होने लगती हैं, उसमें दिव्य-प्रकाश की किरणें फूटने लगती है और उस आराधक के आध्यात्मिक विकास के पथ को प्रशस्त करने लगती हैं। दूसरे शब्दों में मानव जीवन का सर्वोत्कृष्ट एवं मधुर फल मोक्ष-सुख भक्तामर स्तोत्र के आराधक को अवश्य ही प्राप्त होता है और वह अपने को कृत-कृत्य अनुभव करने लगता है।
अद्यावधि पर्यन्त अनेक आराधकों ने इस प्रकार का सुखद अनुभव किया है और हम भी अगर चाहें तो उस प्रकार का अनुभव प्राप्त कर सकते है। परन्तु व्यावहारिक विविध प्रकार के जटिल जंजालों में फंसे हुये हम इस प्रकार की कामना ही कहां करते हैं ? शुभ सुन्दर प्रशस्त कार्य या प्रवृत्ति की इच्छा होना एक मंगलमय ध्येय है, इसे हमें कभी भी नहीं भूलना चाहिये इच्छाओं से संकल्प जागता है और वह संकल्प पूरा होते ही हमारे जीवन मे एक नई रोशनी प्रकट होती है। अतएव हमें इस महान्-अद्वितीय महाप्रभावक स्तोत्र का नित्य-नियमित पाठ करने की अभिलाषा रखनी चाहिये ।
सद्गुरु के पादमूल में ही इस भक्तामर महिमा की साधना किया जाना श्रेयस्कर है। संस्कृत के ४८ श्लोक किस प्रकार कंठस्थ होंगे ? ऐसा विचार कदापि नहीं करना चाहिये । पुरुषार्थ करने वाले जब अनेक शास्त्रों को याद रखते है तो ४८ भक्तामर महिमा मुखाग्र याद करना कोई कठिन कामं नहीं है । प्रतिदिन एक श्लोक कंठस्थ करे तो ४८ दिन में ४८ श्लोक कंठस्थ हो जायेंगे और अगले भव का भव्य कलेजा साथ बंध जावेगा । जिस व्यक्ति से इतना भी न बने तो वह प्रतिदिन आधा श्लोक कंठस्थ करके तीन माह में इस अमूल्य पावन वस्तु को अपना बना सकता है । एक बार अशुद्ध श्लोक आपके मुख लग गया तो उसकी शुद्धि होना बड़ा ही कठिन कार्य होगा, इसलिए सद्गुरु के सानिध्य में बैठ कर भक्तामर स्तोत्र के ४८ काव्यों को शुद्ध कंठाग्र कर लेवे ! ताकि भविष्य में किसी अनिष्ट की आशंका ही न रहने पावे ।
BHAKTAMAR MAHIMA/STOTRA SANSKRIT 1-24
Jain Bhaktamar Ji Path/Stotra/Mahima/Aarti Benefits (written)
भक्तामर महिमा के नित्य नियमित पाठ से अनेकों व्यावहारिक लाभ होते हैं । जैसे आती हुई अनेकों मुसीबतें टलती है, भय दूर भागते है, उपसर्गों का निवारण होता है, विविध प्रकार की व्याधियां नष्ट हो जाती हैं, धन-धान्यादि संपत्ति-सौभाग्य की वृद्धि होती है, हर काम मे यश मिलता है, राजा-प्रजा में लोकप्रिय होता है, इत्यादि ।
सारांश यह है कि भक्तामर महिमा के नित्य नियमित पाठ करने से मुक्ति और भुक्ति दोनों प्रकार के सुख मिलते है अतएव विज्ञजनों को इस ओर विशेष लक्ष्य देने की जरूरत है । कितने ही व्यक्ति यह स्तोत्र बांच कर, पढ़कर उसका पाठ करते हैं, परन्तु कंठस्थ श्लोकों के पाठ करते समय जो भावोल्लास जागता है और आनन्द आता है वह पढ़कर पाठ करने में नहीं आता इसलिए इस स्तोत्र को कंठस्थ करने की तरफ विशेष लक्ष्य देना चाहिये !
श्री मानतुंगाचार्य जी ने “धत्ते जनो य इह कण्ठ-गता-मजस्रं” इन शब्दों मे उसको कंठस्थ करने की सूचना दी है और इस प्रकार उसका पाठ करते ही लक्ष्मी विवश होकर उसके समीप आती है ऐसा अन्तिम श्लोक में बताया गया है।
विशेषतया इस अनुपम स्तोत्र का अर्थ जानने से भाव-वृद्धि और भाव-विशुद्धि मे बहुत अधिक सहायता मिलती है।
इस स्तोत्र का नाम “भक्तामर” क्यों पड़ा?
स्तोत्र के प्रथम श्लोक के प्रथम पद के आधार पर उसका सर्व प्रसिद्ध एवं प्रचलित नाम ‘भक्तामर स्तोत्र’ हुवा। प्रथम श्लोक के “युगादौ” और द्वितीय श्लोक के “प्रथमं जिनेंद्रम्” पदों को लेकर इसे “आदिनाथ स्तोत्र” “ऋषभ स्तोत्र” भी माना जाता रहा है। परन्तु यदि “प्रथमं जिनेंद्रम्” का अर्थ जिनेन्द्रों अर्हन्तों में प्रमुख अर्थात् तीर्थकर देव कर लिया जाय और क्योंकि प्रत्येक तीर्थंकर का युग उस तीर्थंकर के जन्म से प्रारम्भ होता है, तो यह सामान्यतया सभी तीथंकरों या जिनेन्द्रों की स्तुति है । वैसे भी स्तोत्र में कहीं भी किसी भी तीर्थंकर विशेष का नामादि परिचय सूचक कोई स्पष्ट संकेत नहीं है-भक्त अपने इष्टदेव तीर्थकर भगवान या जिनदेव का ही स्तवन करता है, उसे एक ही उपास्य एवं आराध्य सत्ता मान कर ।
Bhaktamar Mahima | भक्तामर-महिमा
भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणिप्रभाणा-
मुद्द्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम् ।
सम्यक् प्रणम्य जिन-पादयुगं युगादा-
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।१।।
आदिदेव भगवान ऋषभदेव के चरण-युगल में भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हुए देवताओं के मुकुट में जड़ी मणियाँ प्रभु के चरणों की दिव्य कान्ति से और अधिक चमकने लगती हैं। भगवान के उन पवित्र चरणों का स्पर्श ही प्राणियों के पापों का नाश करने वाला है, तथा जो उनके चरण-युगल का आलम्बन (सहारा) लेता है, वह संसार-समुद्र से पार हो जाता है। इस युग के प्रारम्भ में धर्म का प्रवर्तन करने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चरण-युगल में विधिवत् प्रणाम करके मैं स्तुति करता हूँ।
चित्र-परिचय:
भगवान आदिनाथ के दिव्य चरणों में देवगण भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रहे हैं, प्रभु के नखों से दिव्य किरणें निकल रही हैं। जिन्होंने भगवान के चरणों का आलम्बन (शरण) लिया, वे संसार-सागर को पार कर रहे हैं, जो इन चरणों से दूर रहे, वे संसार-समुद्र में डूबते जा रहे हैं।
यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय तत्त्वबोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथैः ।
स्तोत्रैर् जगत्त्रितय-चित्तहरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।।२।।
सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने से जिनकी बुद्धि अत्यन्त प्रखर हो गई है, ऐसे देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त को आनन्दित करने वाले सुन्दर स्तोत्रों द्वारा भगवान आदिनाथ की स्तुति की है। उन प्रथम आदि-जिनेन्द्र की मैं अल्पबुद्धि वाला मानतुंग आचार्य भी स्तुति करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
चित्र-परिचय:
प्रखर बुद्धिमान् देवेन्द्र भगवान आदिनाथ की स्तुति कर रहे हैं, उनके समक्ष अति अल्पबुद्धि वाला भक्त भी स्तुति करने का प्रयास कर रहा है।
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित-पादपीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मतिर् विगत-त्रपोऽहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब-
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।।३।।
हे देवों द्वारा पूजित जिनेश्वर! जिस प्रकार जल में झलकते चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को पकड़ना असंभव होते हुए भी, नासमझ बालक उसे पकड़ने का प्रयास करता है, उसी प्रकार मैं अत्यन्त अल्पबुद्धि होते हुए भी आप जैसे महामहिम की स्तुति करने का प्रयास कर रहा हूँ।
चित्र-परिचय
जैसे बालक जल में प्रतिबिम्बित होते चन्द्रमा की परछाईं को पकड़ने का प्रयास करता है, लेकिन वह पकड़ नहीं सकता, वैसे ही देवेन्द्रों द्वारा अर्चित महाप्रभु की स्तुति का प्रयास करना मुझ जैसे साधारण बुद्धि के लिए बाल-चेष्टा के समान लगता है।
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र! शशाङ्क-कान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।४।।
हे गुण-समुद्र जिनेश्वर! क्या चन्द्रमा के समान स्वच्छ, आनन्दरूप, तथा आह्लाददायक आपके अनन्त गुणों का वर्णन करने में देव-गुरु बृहस्पति के समान बुद्धिमान् भी समर्थ हो सकता है? (नहीं।)
भला, प्रलयकाल के तूफानी पवन से उछाल मारते, भयानक मगरमच्छ आदि से क्षुब्ध महासमुद्र को कोई मानव अपनी भुजाओं से तैरकर पार कर सकता है? (नहीं!)
चित्र-परिचय
जैसे भयंकर मगरमच्छों से युक्त तूफानी समुद्र को मनुष्य अपनी भुजाओं से तैरने में समर्थ नहीं हो पा रहा है, वैसे प्रभु के गुणरूपी असंख्य रत्न-राशि को स्वयं देव-गुरु बृहस्पति भी नहीं गिन पाते हैं।
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः ।
प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रं
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ।।५।।
हे मुनिजनों के आराध्यदेव! यद्यपि आपके अनन्त गुणों का वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है, फिर भी आपकी भक्ति के वश हुआ, मैं स्तुति करने के लिए प्रवृत्त हो रहा हूँ। जैसे हरिणी कितनी ही दुर्बल क्यों न हो, किन्तु (वात्सल्यभाव के वश हुई) अपने छौने (शिशु) की रक्षा के लिए आक्रमण करते हुए सिंह का मुकाबला करने के लिए सामने डट जाती है। (इसी प्रकार मैं भी भक्तिवश हुआ अपनी शक्ति का विचार किये बिना आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हो रहा हूँ।)
चित्र-परिचय
जिस प्रकार हिरणी प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिए आक्रमण करने वाले सिंह का मुकाबला कर रही है, उसी प्रकार अल्पशक्ति वाला भक्त भक्तिवश भगवान की स्तुति करने में प्रवृत्त हो रहा है।
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैकहेतुः ।।६।।
हे प्रभो! जिस प्रकार बसन्त ऋतु में आम की मंजरियाँ खाकर कोकिल मधुर स्वर में कूजती है, उसी प्रकार आपकी भक्ति का सम्बल पाकर मैं भी स्तुति करने को वाचाल हो रहा हूँ। अन्यथा मेरी क्या शक्ति? मैं तो अल्पज्ञ हूँ। विद्वानों के सामने उपहास का पात्र हूँ।
चित्र-परिचय
जैसे आम की मंजरी खाकर कोकिल मीठे स्वर आलापने लगती है, वैसे ही अल्पज्ञ भक्त, विद्वानों के समक्ष भी प्रभु की भक्ति का बल पाकर अपना स्तुति काव्य रचता है।
त्वत्संस्तवेन भवसन्तति-सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त-लोकमलिनील-मशेषमाशु
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।।७।।
जिस प्रकार समस्त संसार को आच्छादित करने वाला भँवरे के समान काला-नीला सघन अंधकार सूर्य-किरण निकलते ही छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाता है, उसी प्रकार हे आदिदेव! आपकी भक्ति में लीन होने वाले प्राणियों के अनेक जन्मों के संचित पाप-कर्म आपकी भक्ति के प्रभाव से तत्क्षण नष्ट होने लगते हैं।
चित्र-परिचय
जिस प्रकार सूर्योदय होते ही छाया हुआ सघन अंधकार दूर-दूर भाग रहा है और प्रकाश फैल रहा है। उसी प्रकार हृदय में प्रभु-भक्ति का संचार होते ही हिंसा, क्रोध, लोभ आदि के छुपे हुए अशुभ संस्कार रूप क्रूर, मलिन आकृतियाँ हृदय से पलायन करने लगती हैं और भक्त के मन में धीरे-धीरे पवित्रता का उजास फैलता है।
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु
मुक्ताफल-द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ।।८।।
हे नाथ! मैं मानता हूँ मुझ अल्पबुद्धि द्वारा रचित यह स्तोत्र (आपके दिव्य प्रभाव के कारण) अवश्य ही सज्जनों के मन को आनन्दित करेगा। क्योंकि सूर्य की किरणों के प्रभाव से कमलिनी के पत्तों पर पड़ी नन्हीं-नन्हीं ओस की बूँदें मोती के समान चमकने लग जाती हैं।
चित्र-परिचय
प्रभु के दिव्य प्रभाव के कारण भक्त के साधारण भक्तिवचन भी सबका मन मोहने लगते हैं। जैसे कमल के पत्तों पर गिरे ओसकण मोती की तरह चमक रहे हैं।
आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।।९।।
जिस प्रकार अरुणोदय के समय सहस्ररश्मि सूर्य तो बहुत दूर रहता है, किन्तु उसकी कोमल प्रभा का स्पर्श ही सरोवर में मुरझाये, अलसाये कमलों को विकसित कर देता है। उसी प्रकार हे जिनेश्वरदेव! समस्त दोषों (पापों) का नाश करने वाले आपके स्तोत्र की असीम शक्ति का तो कहना ही क्या; किन्तु श्रद्धा-भक्तिपूर्वक किया गया आपका नाम उच्चारण (माला) भी जगत-जीवों के पापों का नाश कर उन्हें पवित्र बना देता है।
चित्र-परिचय
जिनेश्वरदेव का स्तोत्र करने वाला भक्त उनकी ज्योतिर्मय आभा से पूर्ण रूप से पवित्र हो गया है, तथा नाम स्मरण करने वाले भी क्रमशः पापमुक्त हो रहे हैं। (नीचे) दूर स्थित सूर्य की प्रभा से ही सरोवर में कमल खिल रहे हैं।
नात्यद्भूतं भुवन-भूषण! भूतनाथ!
भूतैर् गणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति? ।।१०।।
हे जगदीश्वर! हे भुवनभूषण! आपके शील, क्षमा, सत्य, संयम आदि अनेक गुणों की तन्मयतापूर्वक स्तुति एवं भावना करता हुआ मानव (जीवन में उन गुणों को धारण कर), आपके समान ही महान् बन जाता है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि जो उदारचित्त स्वामी होता है, वह अपनी सेवा करने वाले आश्रितों को अपने समान ही सुखी-समृद्ध बनाये तो इसमें क्या आश्चर्य है?
चित्र-परिचय
प्रभु के गुणों का कीर्तन करता हुआ भक्त धीरे-धीरे (आत्मा से महात्मा और फिर परमात्मा) प्रभु के स्वरूप को प्राप्त कर रहा है। स्वामी अपने आश्रितजनों को वैभव आदि देकर अपने समान ही प्रतिष्ठित कर देता है।
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्? ।।११।।
प्रभो! आपका अलौकिक स्वरूप अपलक देखने योग्य है। आप जैसे दिव्य स्वरूप के दर्शन कर लेने के बाद न तो पलक झपकाने का मन होता है और न ही आँखें अन्य किसी को देखकर सन्तुष्ट हो सकती हैं। क्योंकि, यह स्वाभाविक ही है कि चन्द्रकिरणों के समान निर्मल और शीतल क्षीर-सागर का मधुर जल पीने के बाद लवण-समुद्र का खारा जल पीने की इच्छा कौन करेगा? कोई भी नहीं!
चित्र-परिचय
भगवान का रूप निहारता हुआ भक्त मुग्ध होकर उन्हीं पर अपलक दृष्टि टिकाये हुए है। क्षीर-सागर का मधुर जल पीने वाला लवण-समुद्र के खारे/अपेय जल को पीना ही नहीं चाहता।
यैः शान्तराग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत!
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।।१२।।
हे त्रिलोकीनाथ! जिन शान्त सुन्दर मनोहर परमाणुओं से आपका शरीर निर्मित हुआ है, वे शुभ परमाणु संसार में उतने ही थे, क्योंकि समूचे संसार में आपके समान अन्य कोई दूसरा अलौकिक रूप मुझे दिखाई नहीं देता है।
चित्र-परिचय
पृथ्वी, जल, तेजस् एवं वायु इन तत्त्वों में जितने शुभ-शान्त परमाणु थे, उन सबको आकृष्ट कर प्रभु की देह का निर्माण हुआ। इसलिए वह अद्वितीय है। शान्त रस की अद्भुत छवि रूप, प्रभु की वन्दना कर रहे हैं देव-देवी मानव-गण!
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्रहारि-
निःशेष-निर्जित-जगत्-त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य
यद् वासरे भवति पाण्डु पलाश-कल्पम् ।।१३।।
हे प्रभु! आपके मुख-मंडल को लोग चन्द्रमा की उपमा देते हैं, परन्तु मुझे यह उपयुक्त नहीं लगता, क्योंकि देव, मनुष्य और नागकुमारों के नेत्रों को आनन्दित करने वाला, प्रकाशमान आपका उज्ज्वल मुखचन्द्र कहाँ और दिन में काले धब्बों वाला मलिन, ढाक के पीले पत्तों की भाँति निस्तेज दिखाई देने वाला चन्द्रबिम्ब कहाँ? सचमुच ही आपके मुख-मण्डल के लिए जगत् की सुन्दर से सुन्दर उपमा भी तुच्छ है।
चित्र-परिचय
चन्द्रमा से भी अधिक प्रकाशमान भगवान के दिव्य मुख-मंडल को देखकर देव, मनुष्य, नागकुमार आनन्दित हो रहे हैं। (नीचे) दिन के समय ढाक के पीले पत्तों की भाँति फीका, निस्तेज दिखाई देता चन्द्रमा।
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ।
ये संश्रितास्-त्रिजगदीश्वर! नाथमेकम्
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ।।१४।।
हे जगदीश्वर! पूर्णमासी के चन्द्रमा की कलाओं (ज्योत्स्ना) के समान आपके अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि निर्मल गुण तीन लोक में सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं, अर्थात् तीन लोक में सर्वत्र आपके गुण गाये जाते हैं। यह ठीक ही है, भला आप जैसे विश्व के एकमात्र अधिष्ठाता प्रभु का आश्रय पाने वालों को इच्छानुसार विचरने में कौन रोक सकता है? (कोई नहीं।)
चित्र-परिचय
जिस प्रकार पूर्णिमा के चन्द्रमा की कलाएँ पर्वत, नदी-नाले, आदि सभी को पार कर सर्वत्र विस्तार पाती हैं, उसी प्रकार प्रभु के अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि दिव्य गुणों की महिमा संपूर्ण तीन लोक में व्याप्त है।
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्तकाल-मरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित्? ।।१५।।
हे वीतरागदेव! स्वर्ग की अप्सराओं ने अपने हाव-भाव-विलास द्वारा आपके चित्त को चंचल बनाने का भरपूर प्रयास किया, फिर भी आपका विरक्त मन किंचित् भी विचलित नहीं हुआ, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं!
क्योंकि सामान्य पर्वतों को हिला देने वाला प्रलयकाल का प्रचण्ड पवन क्या कभी सुमेरु पर्वत के शिखर को भी कम्पित कर सकता है? (नहीं, कभी नहीं।)
चित्र-परिचय
स्वर्ग की सुन्दरियों के नृत्य-संगीत आदि से भी प्रभु का चित्त बिलकुल निर्विकार/अकम्प है। प्रचण्ड पवन से महावृक्ष उखड़ गये, समुद्र का पानी उफनने लगा, पर्वत शिखर टूट-टूटकर गिर पड़े, किन्तु सुमेरु पर्वत तो बिलकुल भी कम्पित नहीं हुआ।
निर्धूम-वर्त्तिरपवर्जित-तैल-पूरः
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता चलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ।।१६।।
हे नाथ! सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाले आप एक ऐसे अलौकिक दीपक हैं जिसको न बाती की जरूरत है, न तेल की, और न ही उससे धुँआ निकलता है। विशाल पर्वतों को कँपा देने वाला झंझावात भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
चित्र-परिचय
सामान्य दीपक तेल और बाती से जलता है, काला धुँआ उगलता है, वायु के झोंके से काँप जाता है और थोड़े से भाग को प्रकाशित करता है, किन्तु भगवान आदीश्वर एक अलौकिक दीपक हैं, जो संपूर्ण जगत् को प्रकाशित कर रहे हैं।
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महाप्रभावः
सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र! लोके ।।१७।।
हे मुनीन्द्र! आप सूर्य से भी विलक्षण महिमाशाली हैं। सूर्य प्रतिदिन उदय होता है, अस्त होता है, किन्तु आपका ज्ञानसूर्य तो सदा ही आलोकित रहता है। कभी अस्त नहीं होता। सूर्य को राहु ग्रस लेता है, किन्तु आप निर्विकार व अनन्त ऋद्धि-सम्पन्न हैं, अतः संसार की कोई भी वासना या इच्छा आपको ग्रस्त नहीं कर सकती। सूर्य धीरे-धीरे कुछ सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है किन्तु आपका केवलज्ञान-प्रकाश संपूर्ण जगत् को एक ही साथ प्रकाशित करता है। सूर्य को सामान्य बादल भी ढँक देते हैं, किन्तु आपके महाप्रभाव को कोई भी शक्ति अवरुद्ध नहीं कर सकती।
चित्र-परिचय
सूर्य उदय, अस्त होता है, राहु से ग्रसा जाता है, बादलों से आच्छादित होता है किन्तु जिनेश्वरदेवरूप सूर्य का प्रभाव कोई भी कम नहीं कर सकता।
नित्योदयं दलितमोह-महान्धकारं
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति
विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्क-बिम्बम् ।।१८।।
हे भगवन्! आपका मुख तो एक अद्भुत चन्द्रमा है, क्योंकि चन्द्रमा तो केवल रात्रि में चमकता है, किन्तु आपका मुख-चन्द्र तो सदा ही प्रकाशमान रहता है। चन्द्रमा सिर्फ सीमित क्षेत्र का अंधकार दूर करता है, आपका मुख-चन्द्र, समस्त जगत् का अज्ञान-मोह रूप अंधकार नष्ट करता है। चन्द्रमा को कभी राहु ग्रस लेता है, कभी बादल ढँक लेते हैं, किन्तु आपके मुख-चन्द्र को कोई भी शक्ति आच्छादित नहीं कर सकती।
चन्द्रमा की कान्ति बहुत अल्प है, परन्तु आपके मुख-चन्द्र की कान्ति अनन्त और सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करने वाली है। इसलिए आपके मुख-कमल की शोभा अद्भुत है।
चित्र-परिचय
चन्द्रमा रात के अंधकार में ही चमकता है, और उसे राहु तथा बादल ग्रस्त कर लेते हैं, किन्तु भगवान का मुख रूपी चन्द्र-कमल सदा असीम प्रकाश देता है।
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा?
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ!
निष्पन्न शालि-वनशालिनी जीवलोके
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार-नम्रैः ।।१९।।
हे नाथ! जब आपका मुख-चन्द्र अंधकार का नाश कर समग्र विश्व को निरन्तर प्रकाशित कर रहा है, तो फिर रात्रि में चन्द्रमा की तथा दिन में सूर्य की क्या आवश्यकता है? भला, जब खेतों में धान पक चुका है, तो फिर जल से भरे नीचे झुके बिजली चमकते मेघों की क्या उपयोगिता है? अर्थात् आप सूर्य, चन्द्र से भी अधिक प्रकाशयुक्त हैं।
चित्र-परिचय
भगवान का मुख-चन्द्र सूर्य एवं चन्द्रमा से भी अधिक प्रकाशमान है, अतः भगवान के सामने इन दोनों की क्या उपयोगिता है? जैसे खेतों में धान पक जाने पर जल से भरे बिजली चमकते मेघों की कोई उपयोगिता नहीं है।
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ।।२०।।
हे भगवन्! जैसा निर्मल-निर्बाध संपूर्ण ज्ञान आप में उद्भासित है, वैसा ज्ञान जगत् में किसी अन्य देव में नहीं देखा जाता। भला, जो अद्भुत कान्ति और प्रकाश बहुमूल्य मणियों में होता है, वैसी चमक सूर्य-किरणों से चमकने वाले काँच के टुकड़ों में कैसे संभव है? (नहीं।)
चित्र-परिचय
हीरा-पन्ना-नीलम-मोती आदि मणियों की अपनी निर्मल कान्ति (प्रभा) के सामने सूर्य की किरणों से मामूली-सी चमक वाले काँच के टुकड़ों का क्या महत्त्व है? इसी प्रकार अनन्त ज्ञान ज्योति युक्त भगवान आदिनाथ के समक्ष अन्य सामान्य देवों का कोई महत्व नहीं है।
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ।।२१।।
हे स्वामी! मैंने आपके दर्शन करने से पहले हरि-हर आदि सरागी देवों को देख लिया, यह अच्छा ही किया; क्योंकि उन्हें देखने के बाद आपकी वीतराग मुद्रा के प्रति हृदय श्रद्धा से पूर्ण सन्तुष्ट हो गया है, किन्तु आपको देखने के बाद मेरा मन (जन्मान्तर में भी) अब अन्यत्र सन्तुष्ट नहीं हो सकता (यह व्यंग्यपूर्ण स्तुति है) अर्थात् संसार में आपसे बढ़कर परम शान्तिमूर्ति वीतरागदेव अन्य कोई नहीं है। आप ही सर्वोत्कृष्ट हैं।
चित्र-परिचय
संसार में प्रायः सभी देव देवियों के साथ रागयुक्त स्थिति में पाये जाते हैं, किन्तु वीतरागदेव सदा ही वीतरागभावयुक्त ध्यानस्थ स्थिति में मिलते हैं, जिन्हें देखकर मन सन्तुष्ट व परितृप्त हो जाता है।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।२२।।
जिस प्रकार सभी दिशाएँ असंख्य तारा/ नक्षत्रों को धारण करती हैं, परन्तु अद्भुत प्रकाशमान सूर्य को तो केवल पूर्व दिशा ही प्रकट करती है, उसी प्रकार संसार में अनेकों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु आपके समान महाप्रतापी पुत्ररत्न को तो सिर्फ एक ही माता ने जन्म दिया, अर्थात् अन्य कोई दूसरा आपके समान नहीं है।
चित्र-परिचय
अन्य दिशाओं में तारे टिमटिमाते रहते हैं, किन्तु प्रकाशमान सूर्य का रथ पूर्व दिशा में ही प्रकट होता है। अन्य स्त्रियाँ भी पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु आप जैसे महान् पुत्र को जन्म देने वाली माता तो संसार में एक ही थी।
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् ।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ।।२३।।
हे मुनियों के आराध्य! सभी मुनिजन आपको तेजोमय परम पुरुष मानते हैं। आप राग-द्वेष के मल से रहित, अज्ञान, अन्धकार से सर्वथा दूर होने से सूर्य के समान तेजस्वी हैं। आपके द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुगमन कर अन्तःकरण की शुद्धि होने पर साधक आपके दर्शन करके मृत्यु को भी जीत लेता है। प्रभो! आपकी भक्ति निश्चित रूप में शिवपद, अर्थात् मुक्ति का मंगल-मार्ग है।
चित्र-परिचय
संसार के सभी मुनिजन प्रभु आदिदेव को आराध्य मानकर वन्दना-भक्ति-स्तुति करते हैं। प्रभु की भक्ति में लीन होने वाले साधक के तेज के सामने यमराज भी हार खा जाता है, अर्थात् साधक मृत्यु विजेता बनकर सीधा मुक्ति के (प्रकाशपंथ) पर प्रयाण करता है।
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं
ब्रह्माण-मीश्वर-मनन्त-मनङ्गकेतुम् ।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।२४।।
हे प्रभो! संसार के सभी सन्त और भक्त आपके विभिन्न स्वरूपों की स्तुति करते हैं, जैसे-
आप अव्यय – अविनाशी हो
आप विभु – ज्ञानदृष्टि से सर्वव्यापक हो
अचिन्त्य – मन की चिन्तनधारा से भी परे हो
असंख्य – आपके गुणों की गणना नहीं है
आदिपुरुष – धर्म की आदि करने वाले हो
ब्रह्म – आनन्दमय हो
ईश्वर – आत्म-ऐश्वर्य से सम्पन्न हो
अनन्त – आपके ज्ञान-दर्शन आदि गुणों का पार नहीं है
अनंगकेतु – काम का नाश करने के लिए धूमकेतु के समान हो
योगीश्वर – योगियों के भी आराध्य हो
विदितयोग – योग मार्ग के ज्ञाता हो
अनेक हो – भक्तों के हृदयों में नानारूप में विराजमान हो
एक हो – आपके समान अन्य कोई नहीं है
ज्ञानमय हो – शुद्ध चैतन्यस्वरूप हो
अमल हो – काम-क्रोध आदि विकारों से रहित हो
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित! बुद्धि-बोधात्
त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रय-शङ्करत्वात् ।
धाताऽसि धीर! शिवमार्ग-विधेर् विधानात्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ।।२५।।
हे देवों द्वारा पूजित, आप में बुद्धि का (ज्ञान का) पूर्ण रूप से विकास होने से आप ही बुद्ध हो। तीन लोक के जीवों का शं- कल्याण करने वाले होने से शंकर भी आप हो, रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग की विधि के विधाता (उपदेष्टा) होने से ब्रह्मा आप ही हो, संसार के समस्त भक्तों के मन में व्यक्त (प्रकट) होने से व्यक्त-विष्णु का रूप आप ही हो, और समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ-पुरुषोत्तम भी आप ही हो।
चित्र-परिचय
प्रभु अनन्त गुणमय हैं। समतावादी भक्त बुद्ध-शंकर-विष्णु-ब्रह्मा और पुरुषोत्तम के स्वरूप में प्रभु के ही एक-एक विशिष्ट गुण की अभिव्यक्ति अनुभव करता है।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षितितलामल-भूषणाय!
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय!
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ।।२६।।
हे नाथ! आप तीन लोक की पीड़ा को दूर करने वाले हैं। आप भूमण्डल के निर्मल आभूषण हैं। आप तीनों लोकों के परमेश्वर हैं और संसार-समुद्र से पार पहुँचाने वाले आप ही हैं, अतः मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।
चित्र-परिचय
दुःखी मानव प्रभु को कष्ट-निवारक के रूप में, देवगण प्रभु को जगत् के मण्डन-अलंकार के रूप में, साधक जन-परमेश्वर के रूप में, और नागकुमार आदि भव-समुद्र के शोषक के रूप में देखकर वन्दना करते हैं।
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैः-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!
दोषैरुपात्त-विविधाश्रय-जातगर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ।।२७।।
हे मुनीश्वर! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि संसार में जितने सद्गुण हैं, वे सभी आपमें आश्रय पा चुके हैं, अतएव आपमें दोषों को बिलकुल स्थान नहीं मिला। वे दोष दुर्गुण दूसरी जगह चले गये। दूसरे व्यक्तियों ने उन्हें अपना लिया, अतः वे मिथ्या गर्व से गदराये हुए दुर्गुण पुनः लौटकर स्वप्न में भी आपकी और नहीं आये। अर्थात् संसार के समस्त सद्गुण आपमें विद्यमान हैं। दुर्गुण आपके दूर है।
चित्र-परिचय
तराजू, दीपक आदि चित्र नीति, ज्ञान, विनम्रता, वैराग्य, निःस्पृहता और दयालुता के प्रतीक हैं। ये समस्त सद्गुण भगवान में केन्द्रित हो गये हैं। भगवान से विमुख व्यक्ति क्रोध-मान-लोभ आदि दुर्गुणों से ग्रस्त होता है।
उच्चैरशोकतरु-संश्रित-मुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
स्पष्टोल्लसत् किरणमस्त-तमो-वितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ।।२८।।
जिस प्रकार सघन-बादलों के बीच में चमकती हुई किरणों से अंधकार को नष्ट करता हुआ सूर्य-मण्डल शोभित होता है, उसी प्रकार हे प्रभो! समवसरण में अशोक-वृक्ष के नीचे विराजित आपकी निर्मल देह से निःसृत चमकती किरणें ऊपर की ओर जाती हैं, तब आपका रूप अतीव भव्य प्रतीत होता है। अर्थात् आपके शरीर की स्वर्ण-प्रभा अशोक-वृक्ष के नीले पत्तों पर गिरने से रंगों की एक अतीव मनोहर छटा-सी खिल जाती है।
(प्रथम “अशोक वृक्ष” प्रातिहार्य है)
चित्र-परिचय
(अशोक-वृक्ष प्रातिहार्य)
जिस प्रकार सघन बादलों के बीच में चमकती हुई सूर्य-किरणों से बादलों की छटा बड़ी नयनाभिराम दीखने लगी है, उसी प्रकार प्रभु की स्वर्णवर्णी देह कान्ति और अशोक-वृक्ष की नीलवर्णी चमक से एक भव्य आभामंडल बन गया है।
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ।
बिम्बं वियद् विलसदंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्ररश्मेः ।।२९।।
जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर उदित होता सूर्य चारों ओर फैली हुई स्वर्णवर्णी किरणों से आकाश में सुशोभित होता है, हे भगवन्! उसी प्रकार मणियों की रंग-बिरंगी किरणों से दीपित ऊँचे सिंहासन पर आसीन आपका सुवर्ण के समान देदीप्यमान स्वच्छ शरीर अतीव प्रभास्वर और मनोहारी लगता है। (यह द्वितीय सिंहासन प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(सिंहासन-प्रातिहार्य)
मणि-मण्डित सिंहासन पर भगवान का स्वर्ण-प्रभायुक्त शरीर शोभित हो रहा है, जैसा कि उदयाचल पर स्वर्णिम किरणों वाला सूर्य शोभा पा रहा है।
कुन्दावदात-चल-चामर-चारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ।
उद्यच्छशाङ्क-शुचि-निर्झर-वारिधार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।।३०।।
हे प्रभो! आपकी स्वर्णवर्णी देह के दोनों ओर, कुन्द पुष्प के समान अत्यन्त उज्ज्वल ढुलते चँवर देखकर मुझे ऐसा लगता है, मानो स्वर्णगिरि सुमेरु के दोनों शिखरों से चन्द्र-किरणों के समान उज्ज्वल निर्मल जल के निर्झर बहते आ रहे हों। (यह तृतीय चामर प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(चामर प्रातिहार्य)
स्वर्णगिरि-सुमेरु के चन्द्र-किरण से उज्ज्वल झरनों के साथ भगवान की स्वर्णिम देह के दोनों ओर दोलायमान उज्ज्वल चँवरों की तुलना की गई है।
छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्क-कान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानुकर-प्रतापम् ।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ।।३१।।
हे प्रभो! आपके मस्तक पर तीन छत्र शोभित होते हैं। ये छत्र चन्द्रमा की भाँति सौम्य-श्वेत मोतियों की झालर के समान शोभा पा रहे हैं। इन छत्रों ने प्रचण्ड सूर्य-रश्मियों के आतप को रोक लिया है। वास्तव में ये तीनों छत्र आपकी तीन लोकव्यापी प्रभुता और परमेश्वरता के सूचक हैं। (चौथा छत्रत्रय प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(छत्रत्रय प्रातिहार्य)
सूर्य की प्रचण्ड किरणों को रोकते हुए तीन छत्र और तीन लोक पर प्रभु का सिंहासन त्रिलोक-स्वामित्व का प्रतीक है। चित्र में ऊर्ध्व लोक अत्यन्त प्रकाशमय, मध्यलोक सामान्य प्रकाशमय और अधोलोक अंधकारमय दिखाया है।
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-सङ्गम-भूति-दक्षः ।
सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषकः सन्
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ।।३२।।
हे प्रभो! आप जब समवसरण (धर्मसभा) में विराजते हैं, तब देवगण आकाश में दुन्दुभि बजाते हैं। उस गंभीर घोष से दशों दिशाएं गूंजने लगती हैं। दुन्दुभि का यह उद्घोष जैसे तीन लोक के प्राणियों को कल्याण प्राप्ति के लिए आह्वान कर रहा है कि “हे जगत् के प्राणियो! आओ! सच्चा कल्याण मार्ग प्राप्त करो”, तथा आप द्वारा कथित सद्धर्म का जय-जयकार भी सब दिशाओं में गुँजा रहा है। (पाँचवाँ देव दुन्दुभि प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(देव-दुन्दुभि प्रातिहार्य)
प्रभु समवसरण में बिराजमान हैं, इन्द्र-ध्वज लहरा रहा है, देवगण आकाश में दुन्दुभि बजाकर उद्घोषणा कर रहे हैं, जिसे सुनकर स्त्री, पुरुष, पशु आदि भगवान के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ते हैं।
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्धा ।
गन्धोदबिन्दु-शुभमन्द-मरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ।।३३।।
हे भगवन्! आपके समवसरण में जब देवगण आकाश से मन्दार-सुन्दर-नमेरु-पारिजात आदि सुन्दर पुष्प और सुगन्धित जल (गंधोदक) की वर्षा करते हैं, तब मंद-मंद पवन के झोंकों से हिलोर खाते वे पुष्प ऐसे भव्य प्रतीत होते हैं, मानो आपके श्रीमुख से वचनरूपी दिव्यपुष्प ही बरस रहे हों। (यह छठवाँ सुर पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(सुर पुष्प-वृष्टि प्रातिहार्य)
आकाश से देवगण अनेक प्रकार के पुष्प एवं सुगंधित जल की वृष्टि कर रहे हैं, यह पुष्प-वृष्टि ऐसी लगती है, मानो भगवान के श्रीमुख से वचनरूपी पुष्प बरस रहे हों, और उन वचन-पुष्पों का समूह ही द्वादशांगी आगम-ग्रंथ बन गये हों।
शुम्भत्प्रभावलय-भूरिविभा विभोस्ते
लोकत्रय-द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर भूरिसंख्या
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ।।३४।।
हे प्रभो! आपका अत्यन्त प्रकाशमान उज्ज्वल आभामंडल संसार की समस्त प्रभावान् वस्तुओं से अधिक प्रभास्वर है। उसकी विलक्षणता तो यह है कि वह उदित होते अनेकानेक सूर्यों के तेज से अधिक प्रचण्ड होने पर भी पूर्णमासी के चन्द्रमा से अधिक शीतलता, सौम्यता भी प्रदान करने वाला है। (भामण्डल नामक सातवाँ प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(भामण्डल-प्रातिहार्य)
समवसरण में विराजित भगवान का मुख-मंडल चारों दिशाओं में दिखाई देता है और उसके चारों तरफ एक प्रकार का गोल प्रकाशपुँज (आभामंडल-औरा) बन जाता है तथा यह आभामंडल सूर्य से अधिक तेजस्वी व चन्द्रमा से अधिक शुभ्र एवं शीतलतादायक है।
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्याः ।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्य ।।३५।।
हे भगवन्! आपकी दिव्य-ध्वनि, सब जीवों को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने में सक्षम है। समस्त प्राणियों को सत्यधर्म का रहस्य समझाने में कुशल है। गंभीर अर्थ वाली होकर भी अत्यन्त स्पष्ट है, और जगत् के सभी जीवों के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषा के अनुरूप बोध देने की शक्ति है उसमें। (यह दिव्य-ध्वनि नाम का आठवाँ प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य)
भगवान के समवसरण में देव-मानव-पशु-पक्षी आदि सभी उपस्थित होते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप तथा दान-शील-तप-भाव रूप चतुष्टय मोक्ष मार्ग का उपदेश सुनकर सभी प्राणी उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते
उन्निद्र-हेम-नवपंकजपुंज-कांती,
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परि-कल्पयंति ॥36॥
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,
धर्मोप-देशन विधौ न तथा परस्य ।
यादृक् प्रभा देनकृतः प्रहतान्ध-कारा,
तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोपि ॥37॥
हाथी वशीकरण
श्च्योतन-मदा-विल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नाद विवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतंतं,
दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः ।
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणा-धिपोपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतंतं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥40॥
सर्प विष निवारक
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीम-नाद-
माजौ बलं बलवतामपि भू-पतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं,
त्वत्कीर्त्तनात्-तम इवाशु भिदा-मुपैति ॥42॥
कुंताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्-पाद-पंकज-वना-श्रयिणो लभंते ॥43॥
अम्भो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजंति ॥44॥
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः ।
त्वत्पाद-पंकज-रजोमृतदिग्ध-देहाः,
मर्त्या भवंति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥45॥
आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।
त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धीते ॥47॥
स्तोत्र-स्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं
तं मानतुंगमवश समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥
BHAKTAMAR STOTRA SANSKRIT LYRICS MAHIMA PAATH
Bhaktamar Stotra Sankrit (Introduction)
सभी भारतीय परंपरा (tradition) में अपने इष्ट की पूजा आराधना और उपासना की परिपाटी (tradition) रही है और यह आराधना उपासना लोगों ने अलग-अलग तरीके से की । कहीं स्तुति के रूप में हुआ, कहीं स्तोत्र के रूप में हुआ, कहीं बिनती के रूप में हुआ, कहीं जाप आराधन के रूप में हुआ । भगवान की भक्ति (devotion and love for God by a devotee) करने की प्रक्रिया हमारे यहां बड़े पुरातन काल से है । जैन परंपरा में भी भक्ति स्तुति का बड़ा महात्म्य निरूपित किया गया है । प्रारंभिक दौर से ही भक्ति की विधा (प्रकार, किस्म) रही है । जैन अध्यात्म के प्रवर्तक आचार्य कुंदकुंद ने जहां एक और वीतराग धर्म का उपदेश दिया वहीं उन्होंने 10 भक्तियों के माध्यम से अपनी भक्ति को भी प्रकट किया । भक्ति के महात्म्य का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा भगवान की भक्ति से पूर्व संचित कर्म का विनाश होता है, कर्म नष्ट होते हैं । कुल मिलाकर भक्ति को कर्म क्षय का एक सहज उपाय के रूप में देखा गया और स्वीकारा गया । अनेक आचार्य हुए जिन्होंने अपनी भक्ति विभिन्न स्तुतियों और स्त्रोतों के माध्यम से प्रकट की । दिगंबर जैन परंपरा में आचार्य कुंदकुंद की भक्ति सबसे प्राचीन देखने को मिलती है। उसके बाद आचार्य समन्तभद्र और फिर अन्य अनेक आचार्यों ने अलग-अलग स्तुति स्तोत्र आदिक लिखें ।
उन सब के मध्य आज जिसकी चर्चा प्रारंभ करने जा रहा हूं, भक्तामर स्त्रोत इसका एकदम अलग स्थान है । भक्तामर स्त्रोत एक ऐसा स्तोत्र है जो विश्व के समस्त जैनियों के कंठ का आभरण (गहना, आभूषण) बना हुआ है । चाहे वह दिगंबर हो या सितंबर? णमोकार महामंत्र और भक्तामर स्तोत्र इन्हीं दोनों के प्रति सभी का समान आदर भाव दिखता है, सभी ने इसको समानता से महत्व दिया स्थान दिया । आज मैं बात प्रारंभ कर रहा हूं भक्तामर स्तोत्र के इस महात्म्य का। और इसके हारदय से आप सबको परिचय कराने की कोशिश करूंगा। मेरी नजर में यह स्तोत्र कोई सामान्य स्तोत्र नहीं है यह अति विशिष्ट स्तोत्र है। प्रायः स्तुति जहां हम अपने इष्ट का गुणानुवाद करते वह स्तुति होती है लेकिन भक्तामर स्तोत्र महज स्तोत्र नहीं है अपने आप में एक मंत्र भी है, इसमें निबदध एक एक अक्षर अपने आप में पूर्ण मंत्र का दर्जा लेते हैं।
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48 Bhaktamar Stotra Sanskrit [Mahima Path Lyrics]। भक्तामर स्तोत्र
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प्रभु वंदना में लीन, आचार्य मानतुंग प्रभु के गुणस्तवन के साथ-साथ अब उनकी दृष्टि भगवान के वैभव की तरफ केंद्रित हो रही है। वैभव सभी को प्रिय है। हर कोई वैभव चाहता है, वैभव के पीछे पागल होता है। हर किसी को वैभव की चाह है, है ना? पर संत कहते हैं सच्चे अर्थों में वैभव क्या है इसे पहचान? वैभव शब्द ‘विभु’ से बना है। विभु होने का मतलब है समर्थ होना, सक्षम होना, अपना ईश्वर बन्ना, अपना मालिक बन्ना, स्वयं पर स्वयं के साम्राज्य को स्थापित कर लेना। जो विभूता से युक्त होता है सच्चे अर्थों में वही वैभव का स्वामी होता है।
लोक में हम उन्हें वैभवशाली के रूप में मानते हैं गिनते हैं जिनके पास अपार धन-संपत्ति हो, प्रभाव हो प्रभुता हो, ठाट बाट हो, सत्ता और शक्ति हो। उस व्यक्ति की गणना लोक में वैभवशाली के रूप में की जाती है। पर संत कहते हैं यह बाहर का वैभव है। यह वैभव क्षण क्षय है, नश्वर है, विनाशी है, टिकने वाला नहीं है। आज है कल रहे कोई भरोसा नहीं। हम अगर अपनी दृष्टि को थोड़ा दौड़ाकर देखे तो ऐसे अनेक वैभव के महल दिखेंगे जो आज खंडहर बन गए हैं। ऐसे अनेक वैभवशाली लोग भी हमारी दृष्टि पथ पर आएंगे जो आज फटे हाल जैसा जीवन जी रहे हैं यह वैभव बाहर का वैभव है जो टिकता नहीं। चाहे चक्रवर्ती जैसा वैभव भी क्यों न पा लें लेकिन चक्रवर्ती जैसे वैभवशाली का वैभव भी टिकाऊ नहीं होता, वह मिट जाता है।
प्रभु एक वैभव बाहर का और एक वैभव भीतर का। आपके समक्ष आने के बाद मुझे जो आपका वैभव दिख रहा है, वह धन वैभव नहीं है, वह गुण वैभव है। धन वैभव तो नश्वर है, क्षण क्षय है, क्षण भंगुर है पर आपका गुण वैभव शाश्वत है, अक्षय है, चिरस्थाई (Everlasting) है, अविनाशी है। आज जब मैं आपके गुण वैभव को देख रहा हूं तो मुझे उसमें एक और अलग आश्चर्य दिख रहा है, एक और जहां आप गुण वैभव से भरे हैं, वहीं बाहरी वैभव भी आपके श्री चरणों में न्योछावर हो रहा है। आपका बाहरी वैभव भी कम नहीं है। बल्कि आपके वैभव के आगे संसार के किसी का वैभव टिकता नहीं। सच्चे अर्थों में देखें तो इस लोक के जितने भी वैभवशाली लोग हैं, वे सब आपके चरणों में आकर नतमस्तक होते हैं।
लोक के सभी वैभवशाली लोग आपके श्री चरणो में आकर नतमस्तक होते हैं।
- आपके चरणों में उर्ध्व लोक में स्वर्ग का इंद्र अपना शीश नवाता है।
- तो पाताल लोक में रहने वाले नागेंद्र भी आपके चरणो में अपने आप को वारते हैं।
- मध्यलोक के नरेंद्र भी आपके चरण चंचरीक बनकर अपने आप को कृतार्थ महसूस करते हैं।
आपकी इस वैभव को देखकर हमारा मन अभिभूत है, ऐसा वैभव जिसकी किसी से तुलना न की जा सके। आपका भीतरी वैभव तो शाश्वत है ही, बाहरी वैभव भी सभी को अचंभित कर देने वाला है। मैं आपकी बाह्य वैभव को देखकर पहले तो अचंभित हुआ और बाद में अभिभूत हो गया कि धन्य है ऐसा वैभव और एक विशेषता मैंने देखी कि सारा वैभव आपके चरणों में न्योछावर हो रहा है। पर आप उस वैभव से अलिप्त हो, उनकी तरफ देखते भी नहीं। अपूर्व है आपका वैभव और हो भी क्यों नहीं, क्योंकि आप ही अपूर्व है। जो स्वयं अपूर्व है उनका वैभव अपूर्व होगा ही होगा। प्रभु आज मैं देख रहा हूं आपकी चारों ओर प्रातिहार्य है, अष्ट प्रातिहार्य। उन प्रातिहार्यों के मध्य आपकी छवि कुछ और ही दिख रही है। ऐसी अद्भुत छवि जो हम सब को एक अलग आध्यात्मिक प्रेरणा देती है। प्रतिहार्य तीर्थंकर परमात्मा के महिमा बोधक चिन्ह के रूप में जाने जाते हैं। प्रातिहार्य शब्द प्रतिहार से बना है। प्रतिहार जो राजा-महाराजाओं के यहां किंकरों (Attender) की तरह रहते थे उनको बोलते हैं प्रातिहार्य। हर राजा महाराजा के दरबार में 2-4 सचेतन प्रतिहारी होते है जो उनके सेवक के रूप में कार्य करते हैं लेकिन भगवान आपके यह 8 प्रातिहार्य हैं जो हमेशा आपके साथ बने रहते हैं और आपके भीतर की महिमा को प्रकट करते हैं, आपकी महिमा को दर्शाते हैं और इनकी रचना भक्ति वश देवगन आकर करते हैं। वह 8 प्रातिहार्य हैं और वह प्रातिहार्य हम सब के लिए आश्चर्य का भी कारण बन रही है और हमारे जीवन के दुख के निवारण में भी सहायक बन रहे हैं। भगवान के उस स्वरूप को देखकर आचार्य मानतुंग जो भगवान के आठ प्रातिहार्य हैं, अशोक वृक्ष, दिव्य सिंहासन, दिव्य चौसठ चमर, तीन छत्र, भामण्डल, पुष्प वर्षा, देवदुंदुभी और दिव्य ध्वनि। इन्हीं 8 प्रातिहार्यों की चर्चा आगे के छंदों में कर रहे हैं। सबसे पहले आचार्य मानतुंग का ध्यान भगवान के मस्तक पर स्थित अशोक वृक्ष पर केंद्रित होता है तो उनके मुख से जो कुछ निकलता है उसे हम दोहरा रहा है।
उच्चैर- शोक- तरु- संश्रित- मुन्मयूख
माभाति रूप- ममलं भवतो नितांतम्
स्पष्टोल्लसत- किरणमस्त- तमोवितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर- पार्श्ववर्ति [28]
पहले इस छंद का अर्थ जाने। फिर हम भगवान के अशोक वृक्ष प्रातिहार्य की महिमा जानेंगे और उसके प्रयोग की बात करेंगे। (उच्चैर- शोक- तरु- संश्रितम)भगवान बैठे हैं, कहां बैठे हैं ?? बहुत ऊंचे अशोक तरु, अशोक वृक्ष के नीचे संस्कृत स्थित/विराजमान, उन्मयूखम् जिसकी किरणें ऊपर की ओर बढ़ रही है ऐसा (भवतो नितांतम् अमलं रूप आभाति) आपका अमल यह निर्मल रूप (नितांतम्) खूब ज्यादा/अतीव (आभाति) शोभास्पद/शोभायमान लग रहा है, खूबसूरत लग रहा है, बड़ा सुंदर लग रहा है आपका रूप निखर रहा है । हे प्रभु आपका निर्मल रूप बड़ा निखर रहा है, अति सुंदर लग रहा है, बहुत शोभायमान है, कैसा रूप? केवल शब्दों का अर्थ अभी जानिये, फिर आपको इसका और विशेष भाव बताऊंगा। ऊंचे पूरे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित जिसकी किरणें ऊपर की ओर निकल रही है मयूख का अर्थ होता किरण, ऊपर जिसकी किरणें निकल रही है। (आभाति) बड़ा आकर्षक बड़ा मनोहर बड़ा शोभास्पद लग रहा है उसकी छटा ही अलग है। कैसा लग रहा है? स्पष्टोल्लसत- किरणमस्त- तमोवितानं जिसकी किरणें स्पष्ट रूप से चारों तरफ फैल रही है। अस्त-तमोवितानं जिसने तम यानी अंधकार के वितान यानी विस्तार को अस्त कर दिया है यानि नष्ट कर दिया जिसने अंधेरे को दूर भगा दिया है जिसकी किरणें स्पष्ट रूप से उल्लसित हो रही है यानी फैल रही है। ऐसे पयोधर- पार्श्ववर्ति बादलों के ओट में छिपे रवे बिम्बं इव सूरज के बिम्बं की तरह रवे यानी सूरज के बिम्बं यानी बिम्बं की इव यानी तरह। हे प्रभु! आपको जब मैं अशोक वृक्ष के नीचे बैठा देख रहा हूं तो कैसा फील हो रहा है? पहले भाव लीजिए, फिर बात करता हूं। अशोक वृक्ष के नीचे बैठा देखने पर मुझे कैसा लग रहा है। ऐसा लग रहा है मानो बादलों की ओट में छिपे सूरज की किरने चारों तरफ फैल रही है।
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भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणिप्रभाणा-
मुद्द्योतकं दलित-पाप-तमोवितानम् ।
सम्यक् प्रणम्य जिन-पादयुगं युगादा-
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् ।।१।।
आदिदेव भगवान ऋषभदेव के चरण-युगल में भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हुए देवताओं के मुकुट में जड़ी मणियाँ प्रभु के चरणों की दिव्य कान्ति से और अधिक चमकने लगती हैं। भगवान के उन पवित्र चरणों का स्पर्श ही प्राणियों के पापों का नाश करने वाला है, तथा जो उनके चरण-युगल का आलम्बन (सहारा) लेता है, वह संसार-समुद्र से पार हो जाता है। इस युग के प्रारम्भ में धर्म का प्रवर्तन करने वाले प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के चरण-युगल में विधिवत् प्रणाम करके मैं स्तुति करता हूँ।
चित्र-परिचय:
भगवान आदिनाथ के दिव्य चरणों में देवगण भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रहे हैं, प्रभु के नखों से दिव्य किरणें निकल रही हैं। जिन्होंने भगवान के चरणों का आलम्बन (शरण) लिया, वे संसार-सागर को पार कर रहे हैं, जो इन चरणों से दूर रहे, वे संसार-समुद्र में डूबते जा रहे हैं।
यः संस्तुतः सकल-वाङ्मय तत्त्वबोधा-
दुद्भूत-बुद्धि-पटुभिः सुरलोक-नाथैः ।
स्तोत्रैर् जगत्त्रितय-चित्तहरैरुदारैः
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ।।२।।
सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करने से जिनकी बुद्धि अत्यन्त प्रखर हो गई है, ऐसे देवेन्द्रों ने तीन लोक के चित्त को आनन्दित करने वाले सुन्दर स्तोत्रों द्वारा भगवान आदिनाथ की स्तुति की है। उन प्रथम आदि-जिनेन्द्र की मैं अल्पबुद्धि वाला मानतुंग आचार्य भी स्तुति करने का प्रयत्न कर रहा हूँ।
चित्र-परिचय:
प्रखर बुद्धिमान् देवेन्द्र भगवान आदिनाथ की स्तुति कर रहे हैं, उनके समक्ष अति अल्पबुद्धि वाला भक्त भी स्तुति करने का प्रयास कर रहा है।
बुद्ध्या विनाऽपि विबुधार्चित-पादपीठ!
स्तोतुं समुद्यत-मतिर् विगत-त्रपोऽहम् ।
बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-बिम्ब-
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ।।३।।
हे देवों द्वारा पूजित जिनेश्वर! जिस प्रकार जल में झलकते चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को पकड़ना असंभव होते हुए भी, नासमझ बालक उसे पकड़ने का प्रयास करता है, उसी प्रकार मैं अत्यन्त अल्पबुद्धि होते हुए भी आप जैसे महामहिम की स्तुति करने का प्रयास कर रहा हूँ।
चित्र-परिचय
जैसे बालक जल में प्रतिबिम्बित होते चन्द्रमा की परछाईं को पकड़ने का प्रयास करता है, लेकिन वह पकड़ नहीं सकता, वैसे ही देवेन्द्रों द्वारा अर्चित महाप्रभु की स्तुति का प्रयास करना मुझ जैसे साधारण बुद्धि के लिए बाल-चेष्टा के समान लगता है।
वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र! शशाङ्क-कान्तान्
कस्ते क्षमः सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या ।
कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-नक्र-चक्रं
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।४।।
हे गुण-समुद्र जिनेश्वर! क्या चन्द्रमा के समान स्वच्छ, आनन्दरूप, तथा आह्लाददायक आपके अनन्त गुणों का वर्णन करने में देव-गुरु बृहस्पति के समान बुद्धिमान् भी समर्थ हो सकता है? (नहीं।)
भला, प्रलयकाल के तूफानी पवन से उछाल मारते, भयानक मगरमच्छ आदि से क्षुब्ध महासमुद्र को कोई मानव अपनी भुजाओं से तैरकर पार कर सकता है? (नहीं!)
चित्र-परिचय
जैसे भयंकर मगरमच्छों से युक्त तूफानी समुद्र को मनुष्य अपनी भुजाओं से तैरने में समर्थ नहीं हो पा रहा है, वैसे प्रभु के गुणरूपी असंख्य रत्न-राशि को स्वयं देव-गुरु बृहस्पति भी नहीं गिन पाते हैं।
सोऽहं तथापि तव भक्तिवशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः ।
प्रीत्याऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगी मृगेन्द्रं
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ।।५।।
हे मुनिजनों के आराध्यदेव! यद्यपि आपके अनन्त गुणों का वर्णन करने की शक्ति मुझमें नहीं है, फिर भी आपकी भक्ति के वश हुआ, मैं स्तुति करने के लिए प्रवृत्त हो रहा हूँ। जैसे हरिणी कितनी ही दुर्बल क्यों न हो, किन्तु (वात्सल्यभाव के वश हुई) अपने छौने (शिशु) की रक्षा के लिए आक्रमण करते हुए सिंह का मुकाबला करने के लिए सामने डट जाती है। (इसी प्रकार मैं भी भक्तिवश हुआ अपनी शक्ति का विचार किये बिना आपकी स्तुति करने में प्रवृत्त हो रहा हूँ।)
चित्र-परिचय
जिस प्रकार हिरणी प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिए आक्रमण करने वाले सिंह का मुकाबला कर रही है, उसी प्रकार अल्पशक्ति वाला भक्त भक्तिवश भगवान की स्तुति करने में प्रवृत्त हो रहा है।
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास-धाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरी-कुरुते बलान्माम् ।
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैकहेतुः ।।६।।
हे प्रभो! जिस प्रकार बसन्त ऋतु में आम की मंजरियाँ खाकर कोकिल मधुर स्वर में कूजती है, उसी प्रकार आपकी भक्ति का सम्बल पाकर मैं भी स्तुति करने को वाचाल हो रहा हूँ। अन्यथा मेरी क्या शक्ति? मैं तो अल्पज्ञ हूँ। विद्वानों के सामने उपहास का पात्र हूँ।
चित्र-परिचय
जैसे आम की मंजरी खाकर कोकिल मीठे स्वर आलापने लगती है, वैसे ही अल्पज्ञ भक्त, विद्वानों के समक्ष भी प्रभु की भक्ति का बल पाकर अपना स्तुति काव्य रचता है।
त्वत्संस्तवेन भवसन्तति-सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् ।
आक्रान्त-लोकमलिनील-मशेषमाशु
सूर्यांशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ।।७।।
जिस प्रकार समस्त संसार को आच्छादित करने वाला भँवरे के समान काला-नीला सघन अंधकार सूर्य-किरण निकलते ही छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाता है, उसी प्रकार हे आदिदेव! आपकी भक्ति में लीन होने वाले प्राणियों के अनेक जन्मों के संचित पाप-कर्म आपकी भक्ति के प्रभाव से तत्क्षण नष्ट होने लगते हैं।
चित्र-परिचय
जिस प्रकार सूर्योदय होते ही छाया हुआ सघन अंधकार दूर-दूर भाग रहा है और प्रकाश फैल रहा है। उसी प्रकार हृदय में प्रभु-भक्ति का संचार होते ही हिंसा, क्रोध, लोभ आदि के छुपे हुए अशुभ संस्कार रूप क्रूर, मलिन आकृतियाँ हृदय से पलायन करने लगती हैं और भक्त के मन में धीरे-धीरे पवित्रता का उजास फैलता है।
मत्वेति नाथ! तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु
मुक्ताफल-द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ।।८।।
हे नाथ! मैं मानता हूँ मुझ अल्पबुद्धि द्वारा रचित यह स्तोत्र (आपके दिव्य प्रभाव के कारण) अवश्य ही सज्जनों के मन को आनन्दित करेगा। क्योंकि सूर्य की किरणों के प्रभाव से कमलिनी के पत्तों पर पड़ी नन्हीं-नन्हीं ओस की बूँदें मोती के समान चमकने लग जाती हैं।
चित्र-परिचय
प्रभु के दिव्य प्रभाव के कारण भक्त के साधारण भक्तिवचन भी सबका मन मोहने लगते हैं। जैसे कमल के पत्तों पर गिरे ओसकण मोती की तरह चमक रहे हैं।
आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति ।
दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभाञ्जि ।।९।।
जिस प्रकार अरुणोदय के समय सहस्ररश्मि सूर्य तो बहुत दूर रहता है, किन्तु उसकी कोमल प्रभा का स्पर्श ही सरोवर में मुरझाये, अलसाये कमलों को विकसित कर देता है। उसी प्रकार हे जिनेश्वरदेव! समस्त दोषों (पापों) का नाश करने वाले आपके स्तोत्र की असीम शक्ति का तो कहना ही क्या; किन्तु श्रद्धा-भक्तिपूर्वक किया गया आपका नाम उच्चारण (माला) भी जगत-जीवों के पापों का नाश कर उन्हें पवित्र बना देता है।
चित्र-परिचय
जिनेश्वरदेव का स्तोत्र करने वाला भक्त उनकी ज्योतिर्मय आभा से पूर्ण रूप से पवित्र हो गया है, तथा नाम स्मरण करने वाले भी क्रमशः पापमुक्त हो रहे हैं। (नीचे) दूर स्थित सूर्य की प्रभा से ही सरोवर में कमल खिल रहे हैं।
नात्यद्भूतं भुवन-भूषण! भूतनाथ!
भूतैर् गणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति? ।।१०।।
हे जगदीश्वर! हे भुवनभूषण! आपके शील, क्षमा, सत्य, संयम आदि अनेक गुणों की तन्मयतापूर्वक स्तुति एवं भावना करता हुआ मानव (जीवन में उन गुणों को धारण कर), आपके समान ही महान् बन जाता है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं; क्योंकि जो उदारचित्त स्वामी होता है, वह अपनी सेवा करने वाले आश्रितों को अपने समान ही सुखी-समृद्ध बनाये तो इसमें क्या आश्चर्य है?
चित्र-परिचय
प्रभु के गुणों का कीर्तन करता हुआ भक्त धीरे-धीरे (आत्मा से महात्मा और फिर परमात्मा) प्रभु के स्वरूप को प्राप्त कर रहा है। स्वामी अपने आश्रितजनों को वैभव आदि देकर अपने समान ही प्रतिष्ठित कर देता है।
दृष्ट्वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ।
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत्? ।।११।।
प्रभो! आपका अलौकिक स्वरूप अपलक देखने योग्य है। आप जैसे दिव्य स्वरूप के दर्शन कर लेने के बाद न तो पलक झपकाने का मन होता है और न ही आँखें अन्य किसी को देखकर सन्तुष्ट हो सकती हैं। क्योंकि, यह स्वाभाविक ही है कि चन्द्रकिरणों के समान निर्मल और शीतल क्षीर-सागर का मधुर जल पीने के बाद लवण-समुद्र का खारा जल पीने की इच्छा कौन करेगा? कोई भी नहीं!
चित्र-परिचय
भगवान का रूप निहारता हुआ भक्त मुग्ध होकर उन्हीं पर अपलक दृष्टि टिकाये हुए है। क्षीर-सागर का मधुर जल पीने वाला लवण-समुद्र के खारे/अपेय जल को पीना ही नहीं चाहता।
यैः शान्तराग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वं
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललामभूत!
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ।।१२।।
हे त्रिलोकीनाथ! जिन शान्त सुन्दर मनोहर परमाणुओं से आपका शरीर निर्मित हुआ है, वे शुभ परमाणु संसार में उतने ही थे, क्योंकि समूचे संसार में आपके समान अन्य कोई दूसरा अलौकिक रूप मुझे दिखाई नहीं देता है।
चित्र-परिचय
पृथ्वी, जल, तेजस् एवं वायु इन तत्त्वों में जितने शुभ-शान्त परमाणु थे, उन सबको आकृष्ट कर प्रभु की देह का निर्माण हुआ। इसलिए वह अद्वितीय है। शान्त रस की अद्भुत छवि रूप, प्रभु की वन्दना कर रहे हैं देव-देवी मानव-गण!
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्रहारि-
निःशेष-निर्जित-जगत्-त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलङ्क-मलिनं क्व निशाकरस्य
यद् वासरे भवति पाण्डु पलाश-कल्पम् ।।१३।।
हे प्रभु! आपके मुख-मंडल को लोग चन्द्रमा की उपमा देते हैं, परन्तु मुझे यह उपयुक्त नहीं लगता, क्योंकि देव, मनुष्य और नागकुमारों के नेत्रों को आनन्दित करने वाला, प्रकाशमान आपका उज्ज्वल मुखचन्द्र कहाँ और दिन में काले धब्बों वाला मलिन, ढाक के पीले पत्तों की भाँति निस्तेज दिखाई देने वाला चन्द्रबिम्ब कहाँ? सचमुच ही आपके मुख-मण्डल के लिए जगत् की सुन्दर से सुन्दर उपमा भी तुच्छ है।
चित्र-परिचय
चन्द्रमा से भी अधिक प्रकाशमान भगवान के दिव्य मुख-मंडल को देखकर देव, मनुष्य, नागकुमार आनन्दित हो रहे हैं। (नीचे) दिन के समय ढाक के पीले पत्तों की भाँति फीका, निस्तेज दिखाई देता चन्द्रमा।
सम्पूर्ण-मण्डल-शशाङ्क-कला-कलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ।
ये संश्रितास्-त्रिजगदीश्वर! नाथमेकम्
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ।।१४।।
हे जगदीश्वर! पूर्णमासी के चन्द्रमा की कलाओं (ज्योत्स्ना) के समान आपके अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि निर्मल गुण तीन लोक में सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं, अर्थात् तीन लोक में सर्वत्र आपके गुण गाये जाते हैं। यह ठीक ही है, भला आप जैसे विश्व के एकमात्र अधिष्ठाता प्रभु का आश्रय पाने वालों को इच्छानुसार विचरने में कौन रोक सकता है? (कोई नहीं।)
चित्र-परिचय
जिस प्रकार पूर्णिमा के चन्द्रमा की कलाएँ पर्वत, नदी-नाले, आदि सभी को पार कर सर्वत्र विस्तार पाती हैं, उसी प्रकार प्रभु के अनन्त ज्ञान-दर्शन आदि दिव्य गुणों की महिमा संपूर्ण तीन लोक में व्याप्त है।
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्
नीतं मनागपि मनो न विकार-मार्गम् ।
कल्पान्तकाल-मरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रि-शिखरं चलितं कदाचित्? ।।१५।।
हे वीतरागदेव! स्वर्ग की अप्सराओं ने अपने हाव-भाव-विलास द्वारा आपके चित्त को चंचल बनाने का भरपूर प्रयास किया, फिर भी आपका विरक्त मन किंचित् भी विचलित नहीं हुआ, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं!
क्योंकि सामान्य पर्वतों को हिला देने वाला प्रलयकाल का प्रचण्ड पवन क्या कभी सुमेरु पर्वत के शिखर को भी कम्पित कर सकता है? (नहीं, कभी नहीं।)
चित्र-परिचय
स्वर्ग की सुन्दरियों के नृत्य-संगीत आदि से भी प्रभु का चित्त बिलकुल निर्विकार/अकम्प है। प्रचण्ड पवन से महावृक्ष उखड़ गये, समुद्र का पानी उफनने लगा, पर्वत शिखर टूट-टूटकर गिर पड़े, किन्तु सुमेरु पर्वत तो बिलकुल भी कम्पित नहीं हुआ।
निर्धूम-वर्त्तिरपवर्जित-तैल-पूरः
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि ।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता चलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ! जगत्प्रकाशः ।।१६।।
हे नाथ! सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करने वाले आप एक ऐसे अलौकिक दीपक हैं जिसको न बाती की जरूरत है, न तेल की, और न ही उससे धुँआ निकलता है। विशाल पर्वतों को कँपा देने वाला झंझावात भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
चित्र-परिचय
सामान्य दीपक तेल और बाती से जलता है, काला धुँआ उगलता है, वायु के झोंके से काँप जाता है और थोड़े से भाग को प्रकाशित करता है, किन्तु भगवान आदीश्वर एक अलौकिक दीपक हैं, जो संपूर्ण जगत् को प्रकाशित कर रहे हैं।
नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महाप्रभावः
सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र! लोके ।।१७।।
हे मुनीन्द्र! आप सूर्य से भी विलक्षण महिमाशाली हैं। सूर्य प्रतिदिन उदय होता है, अस्त होता है, किन्तु आपका ज्ञानसूर्य तो सदा ही आलोकित रहता है। कभी अस्त नहीं होता। सूर्य को राहु ग्रस लेता है, किन्तु आप निर्विकार व अनन्त ऋद्धि-सम्पन्न हैं, अतः संसार की कोई भी वासना या इच्छा आपको ग्रस्त नहीं कर सकती। सूर्य धीरे-धीरे कुछ सीमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है किन्तु आपका केवलज्ञान-प्रकाश संपूर्ण जगत् को एक ही साथ प्रकाशित करता है। सूर्य को सामान्य बादल भी ढँक देते हैं, किन्तु आपके महाप्रभाव को कोई भी शक्ति अवरुद्ध नहीं कर सकती।
चित्र-परिचय
सूर्य उदय, अस्त होता है, राहु से ग्रसा जाता है, बादलों से आच्छादित होता है किन्तु जिनेश्वरदेवरूप सूर्य का प्रभाव कोई भी कम नहीं कर सकता।
नित्योदयं दलितमोह-महान्धकारं
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति
विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्क-बिम्बम् ।।१८।।
हे भगवन्! आपका मुख तो एक अद्भुत चन्द्रमा है, क्योंकि चन्द्रमा तो केवल रात्रि में चमकता है, किन्तु आपका मुख-चन्द्र तो सदा ही प्रकाशमान रहता है। चन्द्रमा सिर्फ सीमित क्षेत्र का अंधकार दूर करता है, आपका मुख-चन्द्र, समस्त जगत् का अज्ञान-मोह रूप अंधकार नष्ट करता है। चन्द्रमा को कभी राहु ग्रस लेता है, कभी बादल ढँक लेते हैं, किन्तु आपके मुख-चन्द्र को कोई भी शक्ति आच्छादित नहीं कर सकती।
चन्द्रमा की कान्ति बहुत अल्प है, परन्तु आपके मुख-चन्द्र की कान्ति अनन्त और सम्पूर्ण लोक को प्रकाशित करने वाली है। इसलिए आपके मुख-कमल की शोभा अद्भुत है।
चित्र-परिचय
चन्द्रमा रात के अंधकार में ही चमकता है, और उसे राहु तथा बादल ग्रस्त कर लेते हैं, किन्तु भगवान का मुख रूपी चन्द्र-कमल सदा असीम प्रकाश देता है।
किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा?
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमस्सु नाथ!
निष्पन्न शालि-वनशालिनी जीवलोके
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार-नम्रैः ।।१९।।
हे नाथ! जब आपका मुख-चन्द्र अंधकार का नाश कर समग्र विश्व को निरन्तर प्रकाशित कर रहा है, तो फिर रात्रि में चन्द्रमा की तथा दिन में सूर्य की क्या आवश्यकता है? भला, जब खेतों में धान पक चुका है, तो फिर जल से भरे नीचे झुके बिजली चमकते मेघों की क्या उपयोगिता है? अर्थात् आप सूर्य, चन्द्र से भी अधिक प्रकाशयुक्त हैं।
चित्र-परिचय
भगवान का मुख-चन्द्र सूर्य एवं चन्द्रमा से भी अधिक प्रकाशमान है, अतः भगवान के सामने इन दोनों की क्या उपयोगिता है? जैसे खेतों में धान पक जाने पर जल से भरे बिजली चमकते मेघों की कोई उपयोगिता नहीं है।
ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ।।२०।।
हे भगवन्! जैसा निर्मल-निर्बाध संपूर्ण ज्ञान आप में उद्भासित है, वैसा ज्ञान जगत् में किसी अन्य देव में नहीं देखा जाता। भला, जो अद्भुत कान्ति और प्रकाश बहुमूल्य मणियों में होता है, वैसी चमक सूर्य-किरणों से चमकने वाले काँच के टुकड़ों में कैसे संभव है? (नहीं।)
चित्र-परिचय
हीरा-पन्ना-नीलम-मोती आदि मणियों की अपनी निर्मल कान्ति (प्रभा) के सामने सूर्य की किरणों से मामूली-सी चमक वाले काँच के टुकड़ों का क्या महत्त्व है? इसी प्रकार अनन्त ज्ञान ज्योति युक्त भगवान आदिनाथ के समक्ष अन्य सामान्य देवों का कोई महत्व नहीं है।
मन्ये वरं हरि-हरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ।।२१।।
हे स्वामी! मैंने आपके दर्शन करने से पहले हरि-हर आदि सरागी देवों को देख लिया, यह अच्छा ही किया; क्योंकि उन्हें देखने के बाद आपकी वीतराग मुद्रा के प्रति हृदय श्रद्धा से पूर्ण सन्तुष्ट हो गया है, किन्तु आपको देखने के बाद मेरा मन (जन्मान्तर में भी) अब अन्यत्र सन्तुष्ट नहीं हो सकता (यह व्यंग्यपूर्ण स्तुति है) अर्थात् संसार में आपसे बढ़कर परम शान्तिमूर्ति वीतरागदेव अन्य कोई नहीं है। आप ही सर्वोत्कृष्ट हैं।
चित्र-परिचय
संसार में प्रायः सभी देव देवियों के साथ रागयुक्त स्थिति में पाये जाते हैं, किन्तु वीतरागदेव सदा ही वीतरागभावयुक्त ध्यानस्थ स्थिति में मिलते हैं, जिन्हें देखकर मन सन्तुष्ट व परितृप्त हो जाता है।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्ररश्मिं
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालम् ।।२२।।
जिस प्रकार सभी दिशाएँ असंख्य तारा/ नक्षत्रों को धारण करती हैं, परन्तु अद्भुत प्रकाशमान सूर्य को तो केवल पूर्व दिशा ही प्रकट करती है, उसी प्रकार संसार में अनेकों स्त्रियाँ पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु आपके समान महाप्रतापी पुत्ररत्न को तो सिर्फ एक ही माता ने जन्म दिया, अर्थात् अन्य कोई दूसरा आपके समान नहीं है।
चित्र-परिचय
अन्य दिशाओं में तारे टिमटिमाते रहते हैं, किन्तु प्रकाशमान सूर्य का रथ पूर्व दिशा में ही प्रकट होता है। अन्य स्त्रियाँ भी पुत्रों को जन्म देती हैं, किन्तु आप जैसे महान् पुत्र को जन्म देने वाली माता तो संसार में एक ही थी।
त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् ।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ।।२३।।
हे मुनियों के आराध्य! सभी मुनिजन आपको तेजोमय परम पुरुष मानते हैं। आप राग-द्वेष के मल से रहित, अज्ञान, अन्धकार से सर्वथा दूर होने से सूर्य के समान तेजस्वी हैं। आपके द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अनुगमन कर अन्तःकरण की शुद्धि होने पर साधक आपके दर्शन करके मृत्यु को भी जीत लेता है। प्रभो! आपकी भक्ति निश्चित रूप में शिवपद, अर्थात् मुक्ति का मंगल-मार्ग है।
चित्र-परिचय
संसार के सभी मुनिजन प्रभु आदिदेव को आराध्य मानकर वन्दना-भक्ति-स्तुति करते हैं। प्रभु की भक्ति में लीन होने वाले साधक के तेज के सामने यमराज भी हार खा जाता है, अर्थात् साधक मृत्यु विजेता बनकर सीधा मुक्ति के (प्रकाशपंथ) पर प्रयाण करता है।
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्य-मसंख्य-माद्यं
ब्रह्माण-मीश्वर-मनन्त-मनङ्गकेतुम् ।
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।।२४।।
हे प्रभो! संसार के सभी सन्त और भक्त आपके विभिन्न स्वरूपों की स्तुति करते हैं, जैसे-
आप अव्यय – अविनाशी हो
आप विभु – ज्ञानदृष्टि से सर्वव्यापक हो
अचिन्त्य – मन की चिन्तनधारा से भी परे हो
असंख्य – आपके गुणों की गणना नहीं है
आदिपुरुष – धर्म की आदि करने वाले हो
ब्रह्म – आनन्दमय हो
ईश्वर – आत्म-ऐश्वर्य से सम्पन्न हो
अनन्त – आपके ज्ञान-दर्शन आदि गुणों का पार नहीं है
अनंगकेतु – काम का नाश करने के लिए धूमकेतु के समान हो
योगीश्वर – योगियों के भी आराध्य हो
विदितयोग – योग मार्ग के ज्ञाता हो
अनेक हो – भक्तों के हृदयों में नानारूप में विराजमान हो
एक हो – आपके समान अन्य कोई नहीं है
ज्ञानमय हो – शुद्ध चैतन्यस्वरूप हो
अमल हो – काम-क्रोध आदि विकारों से रहित हो
बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित! बुद्धि-बोधात्
त्वं शङ्करोऽसि भुवनत्रय-शङ्करत्वात् ।
धाताऽसि धीर! शिवमार्ग-विधेर् विधानात्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ।।२५।।
हे देवों द्वारा पूजित, आप में बुद्धि का (ज्ञान का) पूर्ण रूप से विकास होने से आप ही बुद्ध हो। तीन लोक के जीवों का शं- कल्याण करने वाले होने से शंकर भी आप हो, रत्नत्रय रूप मोक्ष मार्ग की विधि के विधाता (उपदेष्टा) होने से ब्रह्मा आप ही हो, संसार के समस्त भक्तों के मन में व्यक्त (प्रकट) होने से व्यक्त-विष्णु का रूप आप ही हो, और समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ-पुरुषोत्तम भी आप ही हो।
चित्र-परिचय
प्रभु अनन्त गुणमय हैं। समतावादी भक्त बुद्ध-शंकर-विष्णु-ब्रह्मा और पुरुषोत्तम के स्वरूप में प्रभु के ही एक-एक विशिष्ट गुण की अभिव्यक्ति अनुभव करता है।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्ति-हराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षितितलामल-भूषणाय!
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय!
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ।।२६।।
हे नाथ! आप तीन लोक की पीड़ा को दूर करने वाले हैं। आप भूमण्डल के निर्मल आभूषण हैं। आप तीनों लोकों के परमेश्वर हैं और संसार-समुद्र से पार पहुँचाने वाले आप ही हैं, अतः मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।
चित्र-परिचय
दुःखी मानव प्रभु को कष्ट-निवारक के रूप में, देवगण प्रभु को जगत् के मण्डन-अलंकार के रूप में, साधक जन-परमेश्वर के रूप में, और नागकुमार आदि भव-समुद्र के शोषक के रूप में देखकर वन्दना करते हैं।
को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैः-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश!
दोषैरुपात्त-विविधाश्रय-जातगर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ।।२७।।
हे मुनीश्वर! इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि संसार में जितने सद्गुण हैं, वे सभी आपमें आश्रय पा चुके हैं, अतएव आपमें दोषों को बिलकुल स्थान नहीं मिला। वे दोष दुर्गुण दूसरी जगह चले गये। दूसरे व्यक्तियों ने उन्हें अपना लिया, अतः वे मिथ्या गर्व से गदराये हुए दुर्गुण पुनः लौटकर स्वप्न में भी आपकी और नहीं आये। अर्थात् संसार के समस्त सद्गुण आपमें विद्यमान हैं। दुर्गुण आपके दूर है।
चित्र-परिचय
तराजू, दीपक आदि चित्र नीति, ज्ञान, विनम्रता, वैराग्य, निःस्पृहता और दयालुता के प्रतीक हैं। ये समस्त सद्गुण भगवान में केन्द्रित हो गये हैं। भगवान से विमुख व्यक्ति क्रोध-मान-लोभ आदि दुर्गुणों से ग्रस्त होता है।
उच्चैरशोकतरु-संश्रित-मुन्मयूख-
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ।
स्पष्टोल्लसत् किरणमस्त-तमो-वितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पार्श्ववर्ति ।।२८।।
जिस प्रकार सघन-बादलों के बीच में चमकती हुई किरणों से अंधकार को नष्ट करता हुआ सूर्य-मण्डल शोभित होता है, उसी प्रकार हे प्रभो! समवसरण में अशोक-वृक्ष के नीचे विराजित आपकी निर्मल देह से निःसृत चमकती किरणें ऊपर की ओर जाती हैं, तब आपका रूप अतीव भव्य प्रतीत होता है। अर्थात् आपके शरीर की स्वर्ण-प्रभा अशोक-वृक्ष के नीले पत्तों पर गिरने से रंगों की एक अतीव मनोहर छटा-सी खिल जाती है।
(प्रथम “अशोक वृक्ष” प्रातिहार्य है)
चित्र-परिचय
(अशोक-वृक्ष प्रातिहार्य)
जिस प्रकार सघन बादलों के बीच में चमकती हुई सूर्य-किरणों से बादलों की छटा बड़ी नयनाभिराम दीखने लगी है, उसी प्रकार प्रभु की स्वर्णवर्णी देह कान्ति और अशोक-वृक्ष की नीलवर्णी चमक से एक भव्य आभामंडल बन गया है।
सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ।
बिम्बं वियद् विलसदंशुलता-वितानं
तुङ्गोदयाद्रि-शिरसीव सहस्ररश्मेः ।।२९।।
जिस प्रकार ऊँचे उदयाचल पर्वत के शिखर पर उदित होता सूर्य चारों ओर फैली हुई स्वर्णवर्णी किरणों से आकाश में सुशोभित होता है, हे भगवन्! उसी प्रकार मणियों की रंग-बिरंगी किरणों से दीपित ऊँचे सिंहासन पर आसीन आपका सुवर्ण के समान देदीप्यमान स्वच्छ शरीर अतीव प्रभास्वर और मनोहारी लगता है। (यह द्वितीय सिंहासन प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(सिंहासन-प्रातिहार्य)
मणि-मण्डित सिंहासन पर भगवान का स्वर्ण-प्रभायुक्त शरीर शोभित हो रहा है, जैसा कि उदयाचल पर स्वर्णिम किरणों वाला सूर्य शोभा पा रहा है।
कुन्दावदात-चल-चामर-चारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ।
उद्यच्छशाङ्क-शुचि-निर्झर-वारिधार-
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ।।३०।।
हे प्रभो! आपकी स्वर्णवर्णी देह के दोनों ओर, कुन्द पुष्प के समान अत्यन्त उज्ज्वल ढुलते चँवर देखकर मुझे ऐसा लगता है, मानो स्वर्णगिरि सुमेरु के दोनों शिखरों से चन्द्र-किरणों के समान उज्ज्वल निर्मल जल के निर्झर बहते आ रहे हों। (यह तृतीय चामर प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(चामर प्रातिहार्य)
स्वर्णगिरि-सुमेरु के चन्द्र-किरण से उज्ज्वल झरनों के साथ भगवान की स्वर्णिम देह के दोनों ओर दोलायमान उज्ज्वल चँवरों की तुलना की गई है।
छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्क-कान्त-
मुच्चैः स्थितं स्थगित-भानुकर-प्रतापम् ।
मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ।।३१।।
हे प्रभो! आपके मस्तक पर तीन छत्र शोभित होते हैं। ये छत्र चन्द्रमा की भाँति सौम्य-श्वेत मोतियों की झालर के समान शोभा पा रहे हैं। इन छत्रों ने प्रचण्ड सूर्य-रश्मियों के आतप को रोक लिया है। वास्तव में ये तीनों छत्र आपकी तीन लोकव्यापी प्रभुता और परमेश्वरता के सूचक हैं। (चौथा छत्रत्रय प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(छत्रत्रय प्रातिहार्य)
सूर्य की प्रचण्ड किरणों को रोकते हुए तीन छत्र और तीन लोक पर प्रभु का सिंहासन त्रिलोक-स्वामित्व का प्रतीक है। चित्र में ऊर्ध्व लोक अत्यन्त प्रकाशमय, मध्यलोक सामान्य प्रकाशमय और अधोलोक अंधकारमय दिखाया है।
गम्भीर-तार-रव-पूरित-दिग्विभाग-
स्त्रैलोक्य-लोक-शुभ-सङ्गम-भूति-दक्षः ।
सद्धर्मराज-जय-घोषण-घोषकः सन्
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ।।३२।।
हे प्रभो! आप जब समवसरण (धर्मसभा) में विराजते हैं, तब देवगण आकाश में दुन्दुभि बजाते हैं। उस गंभीर घोष से दशों दिशाएं गूंजने लगती हैं। दुन्दुभि का यह उद्घोष जैसे तीन लोक के प्राणियों को कल्याण प्राप्ति के लिए आह्वान कर रहा है कि “हे जगत् के प्राणियो! आओ! सच्चा कल्याण मार्ग प्राप्त करो”, तथा आप द्वारा कथित सद्धर्म का जय-जयकार भी सब दिशाओं में गुँजा रहा है। (पाँचवाँ देव दुन्दुभि प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(देव-दुन्दुभि प्रातिहार्य)
प्रभु समवसरण में बिराजमान हैं, इन्द्र-ध्वज लहरा रहा है, देवगण आकाश में दुन्दुभि बजाकर उद्घोषणा कर रहे हैं, जिसे सुनकर स्त्री, पुरुष, पशु आदि भगवान के दर्शनों के लिए उमड़ पड़ते हैं।
मन्दार-सुन्दर-नमेरु-सुपारिजात
सन्तानकादि-कुसुमोत्कर-वृष्टि-रुद्धा ।
गन्धोदबिन्दु-शुभमन्द-मरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ।।३३।।
हे भगवन्! आपके समवसरण में जब देवगण आकाश से मन्दार-सुन्दर-नमेरु-पारिजात आदि सुन्दर पुष्प और सुगन्धित जल (गंधोदक) की वर्षा करते हैं, तब मंद-मंद पवन के झोंकों से हिलोर खाते वे पुष्प ऐसे भव्य प्रतीत होते हैं, मानो आपके श्रीमुख से वचनरूपी दिव्यपुष्प ही बरस रहे हों। (यह छठवाँ सुर पुष्पवृष्टि प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(सुर पुष्प-वृष्टि प्रातिहार्य)
आकाश से देवगण अनेक प्रकार के पुष्प एवं सुगंधित जल की वृष्टि कर रहे हैं, यह पुष्प-वृष्टि ऐसी लगती है, मानो भगवान के श्रीमुख से वचनरूपी पुष्प बरस रहे हों, और उन वचन-पुष्पों का समूह ही द्वादशांगी आगम-ग्रंथ बन गये हों।
शुम्भत्प्रभावलय-भूरिविभा विभोस्ते
लोकत्रय-द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ।
प्रोद्यद्-दिवाकर-निरन्तर भूरिसंख्या
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम-सौम्याम् ।।३४।।
हे प्रभो! आपका अत्यन्त प्रकाशमान उज्ज्वल आभामंडल संसार की समस्त प्रभावान् वस्तुओं से अधिक प्रभास्वर है। उसकी विलक्षणता तो यह है कि वह उदित होते अनेकानेक सूर्यों के तेज से अधिक प्रचण्ड होने पर भी पूर्णमासी के चन्द्रमा से अधिक शीतलता, सौम्यता भी प्रदान करने वाला है। (भामण्डल नामक सातवाँ प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(भामण्डल-प्रातिहार्य)
समवसरण में विराजित भगवान का मुख-मंडल चारों दिशाओं में दिखाई देता है और उसके चारों तरफ एक प्रकार का गोल प्रकाशपुँज (आभामंडल-औरा) बन जाता है तथा यह आभामंडल सूर्य से अधिक तेजस्वी व चन्द्रमा से अधिक शुभ्र एवं शीतलतादायक है।
स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्टः
सद्धर्मतत्व-कथनैक-पटुस्त्रिलोक्याः ।
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व
भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैः प्रयोज्य ।।३५।।
हे भगवन्! आपकी दिव्य-ध्वनि, सब जीवों को स्वर्ग और मोक्ष का मार्ग बताने में सक्षम है। समस्त प्राणियों को सत्यधर्म का रहस्य समझाने में कुशल है। गंभीर अर्थ वाली होकर भी अत्यन्त स्पष्ट है, और जगत् के सभी जीवों के लिए उनकी अपनी-अपनी भाषा के अनुरूप बोध देने की शक्ति है उसमें। (यह दिव्य-ध्वनि नाम का आठवाँ प्रातिहार्य है।)
चित्र-परिचय
(दिव्य-ध्वनि प्रातिहार्य)
भगवान के समवसरण में देव-मानव-पशु-पक्षी आदि सभी उपस्थित होते हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप तथा दान-शील-तप-भाव रूप चतुष्टय मोक्ष मार्ग का उपदेश सुनकर सभी प्राणी उसे अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते
उन्निद्र-हेम-नवपंकजपुंज-कांती,
पर्युल्लसन्नख-मयूख-शिखा-भिरामौ ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र धत्तः,
पद्मानि तत्र विबुधाः परि-कल्पयंति ॥36॥
इत्थं यथा तव विभूति-रभूज्जिनेन्द्र,
धर्मोप-देशन विधौ न तथा परस्य ।
यादृक् प्रभा देनकृतः प्रहतान्ध-कारा,
तादृक्कुतो ग्रह-गणस्य विकासिनोपि ॥37॥
हाथी वशीकरण
श्च्योतन-मदा-विल-विलोल-कपोल-मूल-
मत्त-भ्रमद-भ्रमर-नाद विवृद्ध-कोपम् ।
ऐरावताभ-मिभ-मुद्धत-मापतंतं,
दृष्टवा भयं भवति नो भवदा-श्रितानाम् ॥38॥
भिन्नेभ-कुम्भ-गल-दुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमिभागः ।
बद्ध-क्रमः क्रम-गतं हरिणा-धिपोपि,
नाक्रामति क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ॥39॥
कल्पांत-काल-पवनोद्धत-वह्नि-कल्पं,
दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् ।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुख-मापतंतं,
त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥40॥
सर्प विष निवारक
रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ-नीलं,
क्रोधोद्धतं फणिन-मुत्फण-मापतंतम् ।
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्त-शंकस्-
त्वन्नाम-नाग-दमनी हृदि यस्य पुंस ॥41॥
वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीम-नाद-
माजौ बलं बलवतामपि भू-पतीनाम् ।
उद्यद्-दिवाकर-मयूख-शिखा-पविद्धं,
त्वत्कीर्त्तनात्-तम इवाशु भिदा-मुपैति ॥42॥
कुंताग्र-भिन्न-गज-शोणित-वारिवाह-
वेगावतार-तरणातुर-योध-भीमे ।
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षास्-
त्वत्-पाद-पंकज-वना-श्रयिणो लभंते ॥43॥
अम्भो-निधौ क्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र-
पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ ।
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रास्-
त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद्-व्रजंति ॥44॥
उद्भूत-भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाः,
शोच्यां दशा-मुपगताश्-च्युत-जीविताशाः ।
त्वत्पाद-पंकज-रजोमृतदिग्ध-देहाः,
मर्त्या भवंति मकर-ध्वज-तुल्य-रूपाः ॥45॥
आपाद-कण्ठ-मुरुशृंखल-वेष्टितांगा,
गाढं बृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघाः ।
त्वन्नाम-मंत्र-मनिशं मनुजाः स्मरंतः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवंति
मत्त-द्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि-
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् ।
तस्याशु नाश-मुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तव-मिमं मतिमान-धीते ॥47॥
स्तोत्र-स्त्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्-निबद्धां
भक्त्या मया विविध-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् ।
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजसं
तं मानतुंगमवश समुपैति लक्ष्मीः ॥48॥
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Alochana Path (आलोचना पाठ)
PARASNATH पारसनाथ भगवान
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