ये हमारा समयसार परमागम हैं, भरत क्षेत्र की एक निधि। भरत क्षेत्र में समयसार जैसा शास्त्र नहीं हैं। ये कोई हमारा महाभाग्य है कि समयसार अविकल (जो घटाया-बढ़ाया न गया हो, पूरा का पूरा) रूप में जीवंत हैं, सीधा और साक्षात मोक्षमार्ग हैं। मोक्षमार्ग की पगडंडी है, लंबा रास्ता नहीं हैं। लंबा रास्ता तो करणानुयोग का होता हैं। सीधी मोक्ष की पगडंडी हैं, short cut एक दम। उसके आधार से हमें जैन दर्शन के एक असाधारण विषय अनेकांत की चर्चा करना हैं। जैन दर्शन के जितने भी विषय हैं, वे सब एक ही उद्देश्य वाले हैं और एक ही स्थान पर ले जाते हैं। शायद हम इस बात को भूल जाते है इसलिए विषयों में भेद रह जाता है और वे सारे विषय एक ही जगह जाकर मिलते हैं उस विधि को हम स्वीकार नहीं कर पाते। आगम में जितने भी जैन दर्शन के आधारभूत सिद्धांत हैं उन सबको माने उनके परिणाम को एक ही जगह पहुंचाया हैं। एक ही जगह है माने लोक में हमारे पहुंचने के लिए केवल एक ही स्थान है और वो हम स्वयं हैं, हमारा शुद्ध चैतन्य है कि जिससे हमारा सदा से परिचय ही नहीं रहा और आचार्य उसका परिचय देकर हमें वहां तक पहुंचाकर उसको न पहचानने के कारण जिन संकटों का जन्म हुआ उनसे हमको मुक्त कर देना चाहते हैं। जैन दर्शन ये कोई अदभुत चिंतन है और उसमें मुख्य रूप से उसका अनेकांत और अहिंसा ये दोनों ही अदभुत हैं।
आज भी अनेकांत की चर्चा सारे विश्व में बहुलता से होती हैं। दुनिया को अनेकांत इसलिए अच्छा लगता है कि वह सब झगड़ों को मिटाने की यह कला है, ऐसा वे मानते हैं क्योंकि जगत में परस्पर विरुद्ध और परस्पर विपरीत विचारधाराएँ हैं और झगड़े का एकमात्र कारण वहीं हैं। जहां विचारों की विपरीतता होती है वहीं झगड़ों की संभावना होती है, आवश्यक नहीं। विचारों की विपरीतता हो, विविधता हो झगड़ा होना आवश्यक नहीं लेकिन ये होता है क्योंकि जीव उन विचारों के साथ अपने उस विपरीत ज्ञान के साथ तीव्र कषाय वंत होता है इसीलिए निश्चित रूप में झगड़े होते ही है और हिंसा होती हैं। अनेकांत से सारा जगत बड़े-बड़े दर्शनकार और बड़े-बड़े विद्वान ये अपेक्षा रखते हैं ये जो परस्पर विपरीत विचार हैं अनेकांत इनको मिटा देता हैं। किस तरह मिटाता हैं? कि हम ये मानलें कि जब जैन दर्शन ये कहता है कि वस्तु तो अनेक धर्म वाली होती हैं और उन धर्मों में भी परस्पर विरुद्धता होती हैं तब यदि कोई अपनी ओर से, अपने विचार से कोई बात कहता है, तो तुम उसके कहने का वो बिंदु देखो तुम्हे वो सही लगेगी और हम जो कहते हैं, हम अपने बिंदु से कहते हैं तो हम अपने बिंदु से उसकी बात करें और इस तरह दोनों में समन्वय हो जाएगा। इस तरह अनेकांत का उपयोग तो नहीं पर महान दुरुपयोग किया गया क्योंकि जैन दर्शन में जो अनेकांत है वो इसीलिए है ही नहीं की वह दो विपरीत विचारधाराओं में समन्वय कर सके क्योंकि वो संभव ही नहीं है तो अनेकांत की क्या ताकत है कि वो पूरब और पश्चिम को मिल दें। अनेकांत की क्या शक्ति है कि वह सूर्य को पश्चिम में उदित कर दें और पूरब में अस्त कर दें। और यदि कोई ये कहता है कि मैं तो सूर्य का उदय पश्चिम में मानता हूं और दूसरा कहता है कि मैं पूर्व में मानता हूं। तो कहते हैं अपन दोनों सच्चे हैं। तुम्हारा angle भी सच्चा है और मेरा angle भी सच्चा है। लेकिन अनेकांत ये पूछता है कि सूर्य से तो पूछो कि तुम दोनों किस बिन्दु से कह रहे हो? तो फिर वो जिस बिन्दु से कहता है कि मैं सूर्य का उदय पश्चिम में मानता हूं उसकी सच्चाई कितनी हो सकती है? तो वह तो कतई असत्य है और जब असत्य है तो इस तरह के अनेक असत्य इस विश्व में, वस्तु के स्वरूप के दर्शन के बिना पैदा होते रहे हैं और पैदा होते रहेंगे इसलिए उनको मिलाने की कभी भी चेष्टा नहीं करना अन्यथा अनेकांत हमारे हाथ से चला जाएगा।
जितने सिद्धांत जैन दर्शन ये बात सभा में बहुत लोग लेकर बैठे रहते है और अनेकांत का उपयोग हम केवल इसलिए करना चाहते है कि जहां कहीं भी कोई विपरीत प्रसंग आते है तो हम अनेकांत और स्याद्वाद को लाते हैं और ये कहते हैं भई अपन तो अनेकांती हैं तो इनकी बात मान लेने में क्या झगड़ा हैं, क्या दिक्कत है? जैसे जैन दर्शन ये कहता है कि सृष्टि किसी ने नहीं बनाई, वह स्वयं सिद्ध है। और अन्य विचारवाले ये कहते हैं उनके विचार हैं, कहने की उनको आज़ादी भी है, झूठ बोलने की भी आज़ादी होती है उसमें क्या दिक्कत हैं? तो वो कहते हैं कि नहीं नहीं वो तो बनाई गई हैं, बिना बनाएँ तो नहीं बन सकती। दो व्यक्तियों में यदि इस प्रकार की कोई वार्ता और कोई विवाद हो और तीसरा व्यक्ति ये कहे कि अपन तो अनेकांती हैं स्यादवादी हैं मानलों ना ये बात इसमें क्या दिक्कत है? वो कहते है वो अपनी दृष्टि से कहते है, उनका एक अपना दृष्टि बिंदु है और तुम्हारा अपना दृष्टि बिंदु है और वस्तु में अनेक दृष्टि बिंदु होते हैं इसलिए इन दोनों दृष्टि बिंदुओं को मिला लो तो झगड़ा खत्म हो जाएगा। पर प्रश्न ये है कि झगड़ते ही क्यों हो? अगर बनाई गई है ऐसा कोई मानते हैं, अधिकांश लोग ऐसा मानते हैं तो उनको मानने दें। नहीं बनाई है ऐसा जो हम मानते हैं इससे उसमें क्या फ़र्क पड़ता है? क्या अंतर पड़ता है? विचार का अंतर हो लेकिन विचारों का अंतर ना तो झगड़ा सिखाता है और ना विचारों की एकता का आग्रह सिखाता है। इसीलिए अनेकांत का उपयोग सचमुच कोई दूसरा हैं। अभी जो प्रकरण जैसे हमने सुना था मोक्ष प्राप्ति का। जितने भी हमारे सिद्धांत हैं उन सबका केवल एक ही निचोड़ और एक ही परिणाम है कि वे हमें मोक्ष में ले जाकर धर दें। अथवा अपने चैतन्य तक पहुंचा दे जिससे हम अपरिचित हैं। तो क्या अनेकांत इससे कोई पृथक चीज़ हो सकती है? जैसे निश्चय-व्यवहार का सिद्धांत है, निमित्त-उपादान का है, क्रमबद्ध पर्याय हैं और और जितने हैं इन सबका जो फ़ल है, परिणाम है, वह एकमात्र उस विस्मृत (जो स्मरण न हो जो याद न हो, भूला हुआ) चैतन्य का दर्शन कराना मात्र हैं। अनेकांत का इससे पृथक कोई काम, कल्पित करना वो अपनी बुद्धि के साथ द्रोह हैं, सम्यग्ज्ञान के साथ द्रोह है। हुआ क्या है? कि अनेकांत की जितनी चर्चा अन्य लोगों ने की तो उन्होंने तो जितना उसे समझा उतनी ही की। कई लोगों ने तो बिल्कुल उसका विरोध किया। कहते हैं दो बात अथवा वस्तु में दो धर्म, दो स्वभाव वो एक साथ नहीं रह सकती। एक व्यक्ति मर भी गया और ज़िंदा भी है ऐसा जैन दर्शन कहता है। बोले कैसे खराब दिमाग के लोग हैं? वो मर भी गया और वो ज़िंदा भी है कि ऐसा कभी संभव हो सकता है? जैन दर्शन कहता है कि मैं संभव नहीं करता हूँ। मैं तो जो होता है सो कहता हूं। मैं कुछ बनाता नहीं सृष्टि की जो व्यवस्था है उसका रचना करने वाला जैन दर्शन नहीं है, लेकिन जैन दर्शन और उसका अनेकांत वह केवल वस्तु व्यवस्था का प्रतिपादन करके और उस वस्तु व्यवस्था में से वह ये मक्खन निकालता है कि वस्तु व्यवस्था ये कहती है कि जो केवल अपनी सत्ता है उसे सब न्यारे हैं, अलग हैं, भिन्न है और उनसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिए उनसे सिमट कर अपने तक आ जाओ ये एक सीधी साधी बात हैं। दूसरे के घरों में धक्का खाने से कोई फ़ल अथवा कोई सुख होने वाला नहीं हैं इसलिए जितना विवेचन अन्य के द्वारा तो जैन दर्शन का हुआ कई कुछ ऐसे लोग भी हुए निष्पक्ष लोग, जिन्होंने ये कहा कि जिन लोगों ने, जिन विद्वानों ने, जिन दर्शनकारों ने, जैन दर्शन के अनेकांत और स्याद्वाद की निंदा की है उनको उससे पहले जैन दर्शन को पढ़ना चाहिए था अगर वो पढ़ लेते तो काफी अच्छा होता और उनकी ये कलम नहीं चलती। ऐसा आज के कुछ भौतिक विद्वान कहते हैं लेकिन वे भी कोई अनेकांत का वास्तविक स्वरूप समझकर कहते हैं ये हमको आशा नहीं करना चाहिए पर जहां तक वे पहुंचे तो उन्होंने कहा कि जैन दर्शन और महावीर का जो अनेकांत और स्याद्वाद सिद्धांत है तो महावीर कोई सामान्य व्यक्ति तो नहीं था, साधारण व्यक्ति तो नहीं था इसलिए उनके अनेकांत और स्याद्वाद में काफी कुछ होना चाहिए ऐसा जानकार ऐसा मानकर थोड़ा उसको पढ़कर वे उन लोगों की आलोचना करते हैं चाहे वे बहुत बड़े लोग रहे हों, बहुत बड़े दर्शनकार रहे हों, कहते हैं कि इन मनीषी ने, इन दर्शनकार ने, इन आचार्यों ने यह जैन दर्शन के साथ न्याय नहीं किया कि बिना पढ़े और बिना समझे उसके अनेकांत दर्शन की निंदा कर दी और आलोचना कर दी। लेकिन हमने क्या किया? जैनियों ने क्या किया? कि जैनियों ने भी जैसा दूसरे लोगों ने माना, ठीक उसी प्रकार अनेकांत को परस्पर विपरीत दो विचार धाराओं के समन्वय का एक साधन मात्र माना और ये बहुत बुरा हुआ क्योंकि ऐसा कभी संभव होता ही नहीं है कि झूठ और सत्य, ये दोनों कभी मिल सकें और एक जगह रह सकें। सत्य का एक अखंड स्वरूप होता है और वह स्वयं वस्तु हैं। वस्तु स्वयं सत् है और वस्तु का जो संपूर्ण दर्शन है वह सत्य हैं। सत्य हम किसको कहते हैं जगत में? लोक में भी सत्य उसको कहते हैं कि वस्तु जैसी है ठीक वैसा बोल दो ना तो उसको सत्य कहते हैं। और थोड़ा भी वस्तु से हटकर यदि हमने कोई बात कही तो उसे असत्य कहा जाता हैं। कि आम मीठा होता है यह बात कोई विवाद की नहीं है। मिश्री मीठी होती है ये कोई विवाद की बात नहीं है लेकिन इसके विपरीत कहने वाले करोड़ों लोग उनको हम झूठा कहेंगे। क्यों कहेंगे? इसलिए कहेंगे क्योंकि वो तो अपने मिठास को लेकर पड़ी ही है और वह कभी कड़वी हो ही नहीं सकती है इसलिए उस वस्तु के विपरीत जितने वचन होंगे वे सारे के सारे असत्य ही होंगे। ये लोक में भी सत्य और असत्य का आधार हैं। जैन दर्शन भी ये कहता है कि विश्व में वस्तु की जो व्यवस्था है जड़ और चेतन की, वो जड़-चेतन की व्यवस्था का दर्शन अनेकांत करता है और उसके अनुरूप बोलता है और उसके अनुरूप जब वह वस्तु व्यवस्था को देखता है तो उसका फ़ल यह होता है कि क्योंकि जगत के सारे पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं, भिन्न-भिन्न हैं, उनकी सत्ताएँ, उनके गुण और धर्म वे सब के सब न्यारे-न्यारे और अलग-अलग हैं और आत्मा के गुण धर्म, आत्मा की जितनी भी संपत्ति है, वो सब आत्मा के पास है तो आत्मा को अन्य पदार्थों से अपने बनाए हुए सारे नकली रिश्ते उनको समाप्त करके अपनी आत्मा के साथ ही सच्चा रिश्ता बनाना चाहिए इसका नाम मोक्ष है और इसका नाम अनेकांत का वास्तविक अर्थ हैं। ये क्या बुरा किया अनेकांत ने? अब वह 2 विपरीत विचारधाराओं को मिलाने की चेष्टा करता तो वह चेष्टा और वह प्रयत्न, वो मिथ्या प्रयत्न, प्रयत्न के रूप में हो तो सकता था लेकिन उसकी कोई साकारता विश्व में तीन काल में भी संभव नहीं क्योंकि कभी भी दो विपरीत विचारधाराओं को, दो असत्यों को अथवा सत्य और असत्य को, इनको मिलाना संभव नहीं हैं। लोक में भी जितने भी दर्शनों का जन्म हुआ है, दर्शन माने विचार विश्वास उनका जितना जन्म हुआ है वह सब इसी कारण से हुआ है कि उन्होंने ईश्वर जीव और जगत के संबंध में सोचा और जितना वो सोच पाए जहां तक उनकी बुद्धि पहुंच पाई वहां जाकर वो टिक गए और उनका एक दर्शन बन गया और वे उस दर्शन के प्रणेता हो गए, उस दर्शन के कर्ता वे कहलाएँ लेकिन इसका ये अर्थ तो नहीं हैं कि उन्होंने सारी वस्तु व्यवस्था को छानकर और अंत में वे इस निर्णय पर पहुंचें हो ऐसा होता नहीं है इसलिए वस्तु व्यवस्था में किसी अपूर्ण स्थान पर हम टिक जाएं और वस्तु का संपूर्ण आलोचन, वस्तु का संपूर्ण प्रत्यालोचन, उसका संपूर्ण अवलोकन किए बिना हम बीच में अगर टिक जाते हैं तो उसी का नाम तो अनेक दर्शन होता हैं। जैन दर्शन ने केवल ये किया है कि उसने वस्तु को संपूर्ण रूप से देखा, जाना और यह जाना कि जगत में जितने भी जड़-चेतन पदार्थ है वे सब के सब भिन्न-भिन्न हैं। मेरी सत्ता इतनी संपूर्ण है कि उसे किसी दूसरे से संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं है और ना आज तक उसने किसी के साथ संबंध बनाए हैं। संबंधों की कल्पना जीव ने अनंत बार की लेकिन एक भी बार उसके संबंध की कल्पना सार्थक नहीं हुई और साकार नहीं हुई इसलिए संबंध की कल्पनाओं को छोड़कर केवल अपनी सत्ता को और अपने चैतन्य को आत्मसात करना और उसके साथ अपने संपूर्ण संबंध बनाकर जगत से अपने कृत्रिम (जो असली न हो, नकली, बनावटी) संबंध, नकली कल्पित संबंध तोड़ना ये अनेकांत का वास्तविक फ़ल होता हैं। क्योंकि चर्चा अनेकांत की है, उसके सम्बन्ध में वैसे तो सारा ही जैन दर्शन वो अनेकांतिक कहलाता है क्योंकि स्याद्वाद से उसका सारा कथन होता हैं।
अनेकांत माने अनेक हैं अंत जिसके, अंत माने धर्म, तो जिसमें अनेक अंत पाए जाएं, अनेक धर्म पाए जाएं उसको अनेकांत अर्थात अनेकांतिक वस्तु कहते हैं। ये तो स्वयं वस्तु हुई कि जो अनंत धर्मात्मक होती हैं जिसमें अनंत धर्म अर्थात अनंत स्वभाव पाए जाते हैं। और ऐसी जो अनेकांतिक वस्तु है, अनंत स्वभाव वाली, अनंत शक्ति वाली जो वस्तु है उस वस्तु का उन धर्मों की ओर से जिस रूप में वे धर्म वस्तु में पाए जाते हैं, उन धर्मों की ओर से उस वस्तु का जो प्रतिपादन, चिंतन और अनुभूति उसका नाम स्याद्वाद हैं। सीधी बात है ना, एक तो वस्तु और एक उस वस्तु का उसकी जो व्यवस्था है, उसके अनुरूप विवेचन अर्थात अनुभव। बात सुनने की है, कठिन नहीं है, मीठी है बात। अनेकांत बहुत मीठी चीज़ है वो इसलिए है कि वो हमको हमारे अमृत तत्त्व तक, सुधा (अमृत, पियूष) तत्त्व तक पहुंचा देती है, सुधा पान कराती है, इसलिए ऐसी चीज कि जो निरंतर हमको सुधा सागर में डुबो दें और वहां पहुंचा दें उसको बहुत ध्यान से सुनना चाहिए। कठिन समझकर तो सुनना ही नहीं चाहिए। कठिन क्यों है? कठिन कैसे है? अगर हमारे घर में बहुत प्रकार की संपत्ति है, बहुत प्रकार की है अनेक प्रकार की। उस अनेक प्रकार की संपत्ति का विचार करके उसके स्वरूप का विचार करके क्या हम दुखी होते हैं या सुख के मारे उछलते हैं। और अनेकांत क्या बता रहा है? अनेकांत हमारे चैतन्य की उसी संपत्ति को बता रहा है कि जो हमारे भीतर विद्यमान है और जिसका आज तक हमको अदर्शन रहा। जिसे आज तक हम मान ही नहीं पाए जिसके साथ हमारा परिचय ही नहीं हुआ उसका दर्शन अनेकांत हमें करा देता हैं। कहना अनेकांत का ये है कि जगत के जितने भी पदार्थ हैं चाहे वे जड़ हों अथवा चेतन वे सब के सब अनंत शक्ति और अनंत धर्म वाले अथवा अनंत स्वभाव वाले होते हैं, होने भी चाहिए। एक पदार्थ के पास अनंत शक्ति और अनंत धर्म क्यों ना हो? अनंत स्वभाव क्यों ना हों? धर्म माने स्वभाव। वो क्यों ना हों? होने चाहिए। इसलिए होने चाहिए कि जो वस्तु है वह संपूर्ण हो तब तो वह स्वावलंबी (जो अपना ही भरोसा करे, अपना ही सहारा लेनेवाला, आत्मनिर्भर) हो सकती है और अपने आधार पर अनादि काल से अनंत काल तक टिक सकती हैं। यदि उसमें थोड़ी भी कमी होगी तो उसे निश्चित रूप में किसी दूसरे के अवलंबन पर रहना होगा। विश्व की व्यवस्था यह है क्योंकि विश्व है ना ये सब, इसकी व्यवस्था यह है कि जगत का जो हर पदार्थ है वो सत् होने के कारण और अपनी सारी निधियों से, सारे धर्मों से, सारी शक्तियों से संपन्न होने के कारण वह निरावलंबी, असहाय और निरपेक्ष हैं। इसलिए उसने आज तक किसी दूसरे का सहारा अपनी सत्ता को टिकाने के लिए लेने की चेष्टा नहीं की। जड़ पदार्थ वह कुछ समझता नहीं है, उसमें ज्ञान नहीं है लेकिन उसके पास स्वयं शक्तियां और धर्म इतने हैं कि वह उनके बल पर अपनी सत्ता को अनादि अनंत टिकाए हुए हैं। और वह किसी दूसरे का सहारा लेने का कोई अवसर या कोई क्षण जड़ पदार्थ को भी नहीं आता।
यह केवल चैतन्य की नासमझी है क्योंकि इसमें ज्ञान पाया जाता हैं। जिसमें ज्ञान पाया जाता है उसमें अज्ञान की भी संभावना होती है। जिसमें ज्ञान ही नहीं हो तो उसमें अज्ञान की संभावना हो ही नहीं सकती, कभी अज्ञान हो ही नहीं सकता उसको। हम ये कहे कि जितने जड़ पदार्थ है पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल ये अज्ञानी है तो यह बात गलत है। उनमें ज्ञान का अभाव है ये एक बात है और अज्ञान है इसका अर्थ ये हुआ कि उनका ज्ञान खराब हो गया है अर्थात वो सही बात को गलत समझते हैं, झूठा समझते हैं, मिथ्या समझते हैं इसलिए जड़ पदार्थ वे अज्ञानी नहीं लेकिन वे ज्ञान के अभाव वाले हैं, उनमें ज्ञान ही नहीं हैं। जिनमें ज्ञान नहीं है तो उनमें ज्ञान का विकार भी नहीं हो सकता। जिसके पास ज्ञान है तो वहां ज्ञान का विकार हो सकता है, विकार हो ही हो ऐसा आवश्यक नहीं लेकिन वहां विकार हो सकता हैं। तो ज्ञान सिर्फ आत्मा में है इसीलिए वहां ज्ञान, मिथ्या ज्ञान रूप परिणीत हो जाता हैं। विकारी होने के लिए भी पहले वस्तु और वस्तु की शक्ति चाहिए तो हो सकता है अन्यथा नहीं हो सकता है, कभी नहीं हो सकता हैं।
हमने अपना एक steel का बर्तन अगर धूप में रख दिया तो क्या किसी ने आज तक ये बोला की इसको thermometer लगाओ, इसको बहुत बुखार हो गया है। ये हमने क्यों नहीं बोला? और जब इस शरीर को ज्वर (बुख़ार) हुआ और ये गर्म हुआ तो thermometer की ज़रूरत क्यों पड़ी? क्योंकि वो जो बर्तन है उसमें ये योग्यता ही नहीं है, उसमें ये धर्म ही नहीं है कि वह ज्वर रूप परिणीत हो सके। ज्वर रूप परिणीत होने की योग्यता वह केवल इस शरीर में हैं, आत्मा में भी नहीं हैं, केवली शरीर में है और इसलिए इसी को thermometer लगाया जाता हैं। तो चूँकि उसमें वो धर्म ही नहीं है, वो स्वभाव ही नहीं है, शक्ति ही नहीं है, तो उसका विकार भी नहीं हो सकता।
जैसे हमारे यहां घर में दूध हो तो हमने उस दूध को stove पर चढ़ाया इसके बाद दूध उफन गया। दूध उफनने पर एक विशेष प्रकार की श्वास आती है, दूध की भी होती है जलने की भी। जब हम बिना देखे ये जान लेते है कि दूध जल गया है किसी के घर में। ये हमने कैसे जाना? कि वहाँ दूध था और वो उफन गया और वो अग्नि में चला गया तो उसकी ये गंध आ रही हैं। और यदि घर में दूध ही ना हो, तो दूध उफन जाएँ और सिगड़ी में चला जाए क्या कभी किसी ने ये देखा हैं? तो जब दूध ही नहीं है तो दूध के उफनने और सिगड़ी में जाने का विकार होगा कैसे? इसी तरह जिसमें जो धर्म और स्वभाव नहीं होता उसका विकास भी वहां पर नहीं होता है इसलिए जड़ पदार्थ वे कभी क्योंकि उनमें ज्ञान ही नहीं है इसलिए वे अज्ञानी नहीं होती। हां ! उनमें ज्ञान का अभाव होता है इसलिए ज्ञान का विकार उनमें कभी हो ही नहीं सकता हैं। अब ये केवल चैतन्य में ज्ञान है और चैतन्य में ज्ञान के कारण एक ऐसा भी अवसर आता है कि वह नासमझ हो जाता है। सही बात को गलत समझता है तो उस ज्ञान को मिथ्या ज्ञान कह दिया। एक छोटा बालक होता है और एक व्यस्क होता है, बड़ा होता है। छोटा बालक क्योंकि उसकी बुद्धि का विकास ही इस तरह का होता है कि वो बात को समझ नहीं पाता और जब बुद्धि का विकास हो जाता है तो हम बात समझने लग जाते हैं। तो ये बुद्धि के 2 रूप हुए की नहीं हुए? पर प्रश्न यह है कि वहाँ बुद्धि तो होना चाहिए पूरी, बालक में बुद्धि पूरी विद्यमान है पर पूरी विद्यमान होने पर भी उसका जो परिणमन है, उसकी जो पर्याय है, उसकी जो क्रिया है वो वहाँ उतनी है और व्यस्क हो जाने पर उसकी जो पर्याय है वो विकासमान हो जाती है क्योंकि बुद्धि पड़ी है। बुद्धि पड़ी है इसलिए विकास होता है। बुद्धि बराबर है बालक में और बड़े आदमी में, बुद्धि में फ़र्क नहीं है। बुद्धि उसमें फिर बाद में ज़्यादा आई सो नहीं है बात। बुद्धि बराबर है लेकिन विकास में फ़र्क है। जैसे बीज में शक्ति बराबर है लेकिन विकास में अंतर है। जिस समय बीज बोया तो उस समय उसमें उतनी ही शक्ति है कि जब वो बढ़कर मिलों विस्तार वाला वृक्ष बन गया तो भी बीज में शक्ति उतनी ही है। जिस समय बोया गया तब भी शक्ति उतनी ही है, विकास में अंतर हुआ करता हैं। तो इसी तरह ज्ञान में विकार हो जाता है और विकार दूर होकर वह निर्विकार भी हो जाता हैं। ये स्याद्वाद हमको सही ज्ञान की प्रेरणा देता है और वह तब हो सकता है क्योंकि सही ज्ञान का जो जन्म है वह वस्तु के आधार से होता हैं। हमने अभी देखा ना कि लोक में भी सत्य और असत्य का निर्णय हम वस्तु के आधार पर करते हैं। इसी तरह यहां लोकोत्तर मार्ग में भी सत्य और असत्य का निर्णय वो वस्तु व्यवस्था के आधार पर होता हैं। वस्तु व्यवस्था जैसी है यदि ज्ञान ने वो समझ लिया है तो वो सम्यग्ज्ञान हैं तो वो सही ज्ञान हैं। उसी का नाम सच्चा मति-श्रुत ज्ञान और उसी का नाम केवल ज्ञान हैं और उसके विपरीत यदि समझा गया है तो वो असत्य है और उसी का नाम मिथ्या ज्ञान हैं। इस तरह अनेकांत वो स्वयं वस्तु है, हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अनंत धर्म जिसमें पाए जाते है, ऐसी जो वस्तु है वो स्वयं अनेकांत हैं और उस अनेकांत स्वभावी वस्तु का जो प्रतिपादन, प्रतिपादन तो होता है शब्दों में और उस शब्दों की इतनी मुख्यता नहीं लेकिन सचमुच तो भीतर में जो ज्ञान हैं वो ज्ञान उस वस्तु व्यवस्था का अवलोकन करता है, उसका चिंतन करता है, निर्णय करता है और उस वस्तु व्यवस्था को स्वीकार करता हैं। उस वस्तु व्यवस्था को स्वीकार करके और उस वस्तु व्यवस्था में ही ये बात है कि चूंकि ये सारा जगत तुम्हारा नहीं है, अनेकांत ये कहता है। ये सारा जगत तुम्हारा नहीं हैं, तुम्हारे पास जितना है वही तुम्हारा है इसलिए तुम ये सारे जगत से हटकर सारे जगत से दूर हो कर तुम अपने तक चले जाओ ये अनेकांत और स्याद्वाद का संदेश होता हैं। यहां जितना भी अनेकांत का प्रतिपादन हमारे यहां भी हुआ इन आचार्यों के शास्त्रों को छोड़कर इसमें जो सही वर्णन है और इसमें तो उसका जो वास्तविक परिणाम है वहां तक आचार्य पहुंचा कर रहे। हर सिद्धांतों को उठाया और उस सिद्धांत को उठाकर जब तक जीव को चैतन्य का दर्शन नहीं हुआ वहां तक उसे सिद्धांत को बीच में नहीं छोड़ा। इसलिए सारे ही जैन दर्शन के जितने भी सिद्धांत हैं उनका एकमात्र प्रयोजन है उस आत्मा के रमणीय स्वरूप का दर्शन, शाश्वत दर्शन, त्रैकालिक दर्शन और अनंत काल तक उसी में लीन हो जाना और उसी सौख्य (सुखता, सुखत्व) का प्रति समय अनुभव करना ये जैन दर्शन के हर सिद्धांत का फ़ल होता हैं। अनेकांत का जो फ़ल है वो भी यही हैं।
तो अनेकांत में हमने अनंत धर्मात्मक वस्तु की बात शुरू की हैं। 2 प्रकार के धर्म वस्तु में पाए जाते है, प्रत्येक वस्तु में। अब हम बात आत्मा की करते हैं समझ तो ये लिया कि जगत के ये सारे ही पदार्थ जड़ और चेतन वे अनेकांतात्मक हैं और स्याद्वाद के द्वारा उनका वर्णन होता हैं। अब हमें आत्मा की चर्चा करना है? तो आत्मा में भी जो धर्म हैं, वो 2 प्रकार के हैं। एक धर्म ऐसे हैं कि जिनको हम गुण कहते हैं, गुण माने शक्तियां (ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि) ये आत्मा की शक्तियां हैं त्रैकालिक और शुद्ध, ये अनादि अनंत वही की वही रहती है और इनमें कोई अंतर नहीं पड़ता। एक धर्म तो ये है जिनको शक्ति भी कहते हैं।
दूसरे धर्म और शक्ति ऐसे हैं कि जो अनेकांत में गर्भित होते हैं। ये अनेकांत में गर्भित नहीं है जिनको हम गुण कहते हैं वो अनेकांत से बाहर हो सो नहीं कहा जा रहा लेकिन अनेकांत उनमें व्यवसाय नहीं करता हैं। अनेकांत का व्यवसाय उन धर्मों में और उन शक्तियों में होता है कि जो परस्पर विरुध होते हैं। धर्म है, शक्ति है, पदार्थ के भीतर लेकिन वे परस्पर विरुद्ध हैं। विरुद्ध है माने एक धर्म का जो स्वरूप है उसी के साथ नियम से पाए जाने वाले दूसरे धर्म और दूसरी शक्ति का स्वरूप उससे विरुद्ध होता हैं। विरुद्ध तो होता है लेकिन ये दोनों धर्म वस्तु में विरोध पैदा नहीं करते और आपस में भी विरोध नहीं पैदा करते और लड़ते नहीं हैं। परस्पर विरुद्ध होते हैं लेकिन वस्तु में विरोध पैदा नहीं करते और स्वयं भी विरुद्ध होकर आपस में कोई झगड़ा नहीं करते। तो क्या करते हैं? कि इससे विपरीत है बात। ना तो वस्तु में विरोध पैदा करते हैं ना आपस में इनमें कोई विरोध होता है बल्कि ये विरुद्ध धर्म वस्तु की रचना करते हैं और वस्तु के अस्तित्व को टिकाएँ रखते हैं। ऐसी एक अनोखी ऐसी एक अलौकिक बात कि जो जगत का कोई दर्शन अनंत काल तक भी मान नहीं सकते, उसका अनुसंधान (अन्वेषण, खोज) यदि है तो वो केवल जैन दर्शन के पास है, केवल जैन दर्शन के पास हैं। वो अनेकांत कहता है कि वस्तु में जो परस्पर विरुद्ध धर्म पाए जाते हैं तो उनसे वस्तु के स्वरूप की रचना होती है और वही परिभाषा आचार्य ने इसमें दी हैं। वस्तु में वस्तुत्व को उपजाने वाली अस्ति-नास्ति आदि परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों (धर्म युगल) का प्रकाशित होना अनेकांत हैं। सरल है बात, कठिन नहीं है। वस्तु में दो प्रकार की शक्तियां या दो प्रकार के धर्म, दो-दो होते हैं ये, होते अनंत हैं, लेकिन दो-दो धर्मों के युगल होते हैं, जोड़े होते हैं। दो धर्म एक साथ पाए जाते हैं और ऐसे दो धर्मों के ये जो जोड़े हैं युगल हैं ये एक वस्तु में अनंत होते हैं और उन अनंत युगलों के द्वारा वस्तु के स्वरूप की रचना होती हैं, वस्तु अनादि काल से अनंत काल तक टिकी रहती हैं। और वो कभी भी अन्य वस्तु रूप और दूसरे वस्तु रूप परिणमित नहीं होती। दूसरे गुण रूप और दूसरे धर्म रूप कभी भी परिणमित नहीं होती अर्थात वस्तु का वस्तुत्व टिका रहता है अनादि अनंत। ये उस अनेकांत का परिणाम होता हैं, हल होता हैं। वो कैसे होता है? कि जैसे वस्तु में अनेक धर्म होते हैं, ये बात तो समझ में आती है, अस्ति-नास्ति आदि से आगे उसका वर्णन होने वाला है कि जैसे हम बात करें कि हम गृहस्थ हैं और हमारे घर का काम चलता है? कैसे काम चलता है? कि अस्ति और नास्ति ये दोनों बातें एक साथ हों, तो गृहस्थी चलती रहती है। केवल अस्ति हो तो बिगड़ जाएगी, केवल नास्ति हो तो बिगड़ जाएगी। वो कैसे होगा? कि अस्ति में एक व्यक्ति के पास पांच लाख का bank deposit है और वो bank में पड़ा है। वो तो bank में पड़ा हैं। अब नास्ति माने उसको खर्चा भी तो चाहिए कि जिससे पेट भर सके। वे वस्तुएं भी तो चाहिए कि जिनका उपयोग करके वह जीवन निर्वाह और अपने परिवार का निर्वाह कर सके, वो कैसे होगा? कि अगर केवल bank deposit हो और खर्चा न हो तो, नास्ति ना हो और केवल अस्ति हो तो, तो वो गृहस्थी नहीं टिकेगी। तो फिर क्या है? कि वो जो bank deposit है उसमें से मासिक आता है और उस मासिक को हम रोज़ाना खर्च करते हैं। उधर वो आता है और इधर हम खर्च करते हैं तो गृहस्थी बनी रहती है और सुखमय बनी रहती हैं। अब bank deposit केवल अकेला हो और घर में सब्ज़ी भी नहीं आवे, आटा भी नहीं आवे, शक्कर भी नहीं आवे, घी भी नहीं आवे तो कौन ज़िंदा रहेगा? सब मर जाएंगे। उधर bank deposit तो न हो लेकिन खर्चा ही खर्चा हो, नास्ति ही नास्ति हो तो टिक जाएगी गृहस्थी? तो वो भी टिकने वाली नहीं हैं। दोनों काम एक साथ होते हैं या नहीं? कि इधर आता है और इधर बाज़ार में जाकर हम उसको खर्च कर देते हैं। इस तरह दोनों का व्यवसाय एक साथ होता है तो हम सुखी बने रहते हैं। हर वस्तु में इस तरह की व्यवस्था है और वही व्यवस्था चैतन्य में भी हैं। क्यों है ये? परस्पर विरुद्ध दो धर्म की व्यवस्था हर वस्तु में है और आत्मा में है, वो कैसे है? कि वस्तु स्वयं इसी प्रकार की बनी हुई हैं। जैसे आत्मा है तो वो आत्मा द्रव्य और पर्याय रूप है, इसमें तो कोई झगड़ा नहीं। द्रव्य है माने वह सदा से है, उसका एक अंश वो ऐसा है कि वो सदा से है और सदा रहेगा। उसमें कभी भी टूट-फूट नहीं होगी। एक बात तो ये है। दूसरा ये है कि वो वस्तु जो अनादि अनंत है अविनश्वर-ध्रुव उसमें प्रतिसमय क्रिया होना है, उसमें प्रतिसमय परिणमन होना हैं। अगर वो परिणमन ना हो तो ये पता ही न लग सके कि ये वस्तु क्या है? क्योंकि वस्तु वो बोलती नहीं है, वह परिणमन नहीं करती है, वह तो अगर परिणमन करे तो उसका नाश हो जाएगा। इसलिए वस्तु तो ज्यों की त्यों उसका एक अंश जिसे हम द्रव्य कहते है। वो तो पूरा का पूरा पड़ा रहता है, ज्यों की त्यों पड़ा रहता हैं, अपरिणमित without any change वो पड़ा रहता हैं। और प्रतिसमय उसमें क्रिया होती रहती है उस क्रिया से उस वस्तु के स्वभाव का, उस वस्तु के भीतर क्या है इस बात का पता उस क्रिया से चलता है, उस कार्य से चलता है, उस परिणाम से चलता हैं। ये दो परस्पर विरुद्ध हुए या नहीं हुए? कि एक अंश (द्रव्य) वो तो अनादि अनंत हैं (नित्य है, हमेशा है) और एक पर्याय है जो अनित्य हैं। इन दोनों से मिलकर पूरी वस्तु बनी है उसे पदार्थ कहते हैं। तो पदार्थ द्रव्य-पर्याय स्वरूप है और ये द्रव्य और पर्याय ये परस्पर विरुद्ध हैं, विरुद्ध हुए की नहीं हुए? जो द्रव्य है वो तो नित्य है, अविनश्वर-ध्रुव है, वही का वही रहता हैं। जो पर्याय है वो अनित्य है, बदलती है, प्रतिसमय उसका नाश होता है और नई पैदा होती है ये परस्पर विरुद्धता है लेकिन ये विरुद्धता वस्तु का नाश नहीं करती पर वस्तु को जीवंत रखती हैं सदा ही, माने वस्तु सदा रहती है और उसमें अनादि काल से अनंत काल तक जो होने लायक कार्य है वस्तु के स्वभाव के अनुसार वो कार्य उसमें होता रहता हैं। तो ये जो द्रव्य पर्याय स्वरूप वस्तु है इसी के आधार वस्तु में सारे के सारे परस्पर विरुद्ध ये 2-2 धर्म पाए जाते हैं। समझने की है बात, कठिन नहीं है बिल्कुल। द्रव्य और पर्याय स्वरूप जो वस्तु है उस वस्तु के ही आधार रहने वाले ये दो दो धर्म है परस्पर विरुद्ध। एक धर्म का संबंध द्रव्य से रहता है तो दूसरे धर्म का संबंध पर्याय से रहता हैं। तो चुकी द्रव्य और पर्याय दोनों विरुद्ध हैं इसलिए इन दोनों धर्मों का सम्बंध द्रव्य और पर्याय से होने के कारण ये धर्म भी परस्पर विरुद्ध होते हैं लेकिन परस्पर विरुद्ध होते हुए भी ये वस्तु की रचना करते हैं, वस्तु का नाश नहीं करते। जैसा दूसरे दर्शनकार सोचा करते है कि ये दो परस्पर विरुद्ध बातें है तो वस्तु हो ही नहीं सकती उसका तो नाश हो जाएगा कि ऐसा नहीं है। यहां तो परस्पर विरुद्ध दो धर्मों से वस्तु की रचना होती हैं। जैसे अस्ति और नास्ति से हमारी गृहस्थी की रचना होती है उस तरह वस्तु की यहां पर रचना होती है इसलिए अस्ति और नास्ति इस तरह के बहुत धर्म आगे आने वाले हैं। ये तो एक भूमिका हैं। अनेकांत को जब तक इस रूप में नहीं समझा जाएगा तब तक वो बहुत कठिन है बात और जब तक इस अनेकांत के फ़ल तक हम नहीं पहुंचेंगे तब तक कि कोई उपलब्धि होनी वाली नहीं हैं। ये अस्ति-नास्ति जान लिया, नित्य-अनित्य जान लिया और और अनेक धर्मों के जो परस्पर विरोध है उन धर्मों को जान लिया और यहीं हम ठहर गए तो अनेकांत हाथ नहीं आएगा, बिल्कुल हाथ नहीं आएगा। पर अनेकांते का जो मक्खन है यदि वहां तक हम नहीं पहुंचे तो सचमुच सारा का सारा समयसार बल्कि कहना चाहिए सारा द्वादशांग हमने खो दिया। अनेकांत हमारे सर्व संकटों को दूर करके हमारे जो वास्तविक सुख है आत्मा का उसको उत्पन्न करता है, उसको लाता है, ये अनेकांत की guarantee है, ये अनेकांत की शपथ है। अनेकांत का प्रारंभ ये सौगंध खाकर होता है कि तू यदि मेरे साथ छेड़खानी करे तो तुझे परम सौख्य में जाना पड़ेगा, ये शपथ है अनेकांत की और यही होता है और यही अपने को करना है।